बीते दो-तीन महीने से मणिपुर में जातीय संघर्ष लगातार जारी है,इस हिंसा में सैकड़ों लोगों की मौत हो चुकी है!
L19/ DESK : मणिपुर, जहाँ जातीय हिंसा में अब तक सैकड़ों लोगों की जाने चली गयी है, कई लोग मौत और जिंदगी के बीच जंग लड़ रहे हैं, तो कई हजार परिवार बेघर होकर राहत कैंपो में शरण लेकर अपने जान की सुरक्षा में लगे हैं। इस हिंसा में मणिपुर के मेतेइ और कुकी समुदाय के हजारों घरों को आग के हवाले कर दिया गया, और दोनों समुदाय अब खुलकर आमने सामने आ रहे हैं। हालाँकि सैन्य और पुलिस बलों की मुश्तैदी से हिंसा को बढ़ने से रोका जा रहा है। इतिहास और वर्तमान से पता चलता है कि इस राज्य का जातीय हिंसा से पुराना नाता रहा है, और इसी जातीय गुटबंदी का परिणाम रहा है कि कुकी-नागा, मैतेई- पंगाल मुस्लिम, कुकी-कार्बी, हमार-दिमासा, कुकी-तमिल, और व्यापारियों के विरुद्ध हुई संघर्ष को यहाँ वर्षों से देखा गया है।
मणिपुर को पुराने दौर में कांगली पाक के नाम से जाना जाता था, मणिपुर का अर्थ है पर्वत शृंखलाओं से घिरी घाटी। अगर इस राज्य के भौगोलिक सीमा की बात करें तो यह नागालैंड, असम और मिजोरम के राज्य सीमा और म्यामार देश की सीमा से लगती है। इस राज्य में हिंदू, ईसाई, मुसलमान और परंपरागत धर्म को मानने वाले 39 जाति समुदाय के लोग रहते हैं, जो मेतेइ, ऐनी कुकी ट्राईब्स, और ऐनी नागा ट्राईब्स समूहों में बंटी हुई है। कुकी और नागा समूह पहाड़ी क्षेत्रों में और मेतेइ समुदाय राज्य के घाटी इलाकों में निवास करते हैं।मणिपुर देश की आजादी से पहले एक रियासत थी, जिसके राजा बुधाचन्द्र सिंह थे। साल 1947 में आजादी के बाद देश के सभी रियासतों को तीन विकल्प दिया गया, या तो हिंदुस्तान में शामिल हो जाए या फिर पाकिस्तान में मिल जाए या तो रियासत को स्वतंत्र रखने की अपील की जाए।लेकिन मणिपुर के वर्तमान राजा बोधचंद्र सिंह/ बुधाचंद्र सिंह ने बीच का रास्ता चुना और साल 1948 में मणिपुर रियासत के व्यस्क मतदाताओं के द्वारा संवेधानिक चुनाव करवा दिया। जिसके बाद इस रियासत में संवैधानिक राजतंत्र स्थापित हो गया, जहाँ राजतंत्र और लोकतंत्र दोनों के परस्पर सहयोग से काम होना था। हालाँकि इस चुनाव के बाद ही रियासत के कई लोगों में सुगबुगाहट उत्पन्न हो चुकी थी, और विद्रोह का एक चरण यहीं से शुरू हो गया।
लेकिन कुछ वक़्त बाद ही दिल्ली में बैठी केंद्र सरकार ने मणिपुर के राजा बोधचंद्र सिंह पर दवाब बनाना शुरू किया, क्योंकि केंद्र को लग रहा था, मणिपुर को स्वतंत्र छोड़ देने से अन्य रियासतों से विरोध होने शुरू हो जायेंगे। और अंततः साल 1949 के सितंबर महीने में राजा बोधचंद्र सिंह से इंस्ट्रुमेंट् ऑफ अक्सेसन पर हस्ताक्षर करवा कर मणिपुर को पूर्ण रूप से भारत में शामिल कर लिया गया। लेकिन इसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया गया।जिसके बाद मणिपुर के कई समूहों ने भारत में विलय होने का विद्रोह कर दिया, इन विद्रोही समूहों के नाराजगी का कारण था मणिपुर के स्वतंत्र अधिकार पर केंद्र सरकार का जबरदस्ती कब्जा करना, नाराजगी तब और बढ़ गया जब भारत में विलय होने के बावजूद इसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया गया। और इन्ही विद्रोही समूहों को बाद में, पीपल्स लिबरेशन आर्मी, पीपल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कांगली पाक, और कांगली पाक कम्युनिस्ट पार्टी जैसे उग्रवादी संगठनो के रूप में जाना जाने लगा। इन उग्रवादी संगठनो का एक ही उद्देश्य था मणिपुर को स्वतन्त्र देश बनाना।
जब मणिपुर में विद्रोही गुट पनप रहे थे, उसी वक़्त ग्रेटर नागालैंड बनाने की माँग को लेकर नागा समूहों द्वारा साल 1950 से आंदोलन चलाया जा रहा था, और इस आंदोलन का नेतृत्व फिजॊ कर रहे थे, क्योंकि 14 अगस्त 1947 में उन्होंने नागा समुदाय के समर्थन से ग्रेटर नागालैंड संघ के निर्माण का घोषणा कर दिया था। जिसका उद्देश्य था नागालैंड, मणिपुर, असम, अरुणाचल प्रदेश सहित पड़ोसी देश के नागा बहुल इलाकों को मिलाकर ग्रेटर नागालैंड का निर्माण करना।
नागा आंदोलन का असर मणिपुर के उग्रवादी समूहों पर भी पड़ा, क्योंकि मणिपुर के घाटी क्षेत्रों में रहने वाले मेतेइ और आदिवासी नागा समुदायों ने ही सबसे पहले भारत में मणिपुर रियासत के विलय का विरोध करना शुरू किया था। जिस कारण अंदर ही अंदर नागा आंदोलन को धार दे रहे, उग्रवादी संगठनो का समर्थन मणिपुर के उग्रवादी समूहों को मिलने लगा। जिसके बाद राज्य में कई घटनाओं को अंजाम दिया गया। इतिहास की माने तो मणिपुर के पहले चरण के विद्रोही मेतेइ समुदाय के हित साधने वाले लोग थे, और इन मेतेइ विद्रोही गुटों को नागा विद्रोहियों का भरपूर समर्थन मिला। लेकिन मणिपुर में रह रहे दूसरे आदिवासी कुकी समुदाय ने ग्रेटर नागालैंड के माँग को लेकर चल रहे नागा आंदोलन का विरोध कर दिया। क्योंकि कुकी विद्रोहियों का मानना था, कि ग्रेटर नागालैंड के बनने से गैर नागा समूहों को नुकसान होगा, उनके जमीन और सम्पति जैसे अधिकारों पर कब्जा किया जायेगा। क्योंकि पूर्वोत्तर के राज्यों में कुकी समुदाय और नागा समुदाय के बीच काफी पुराना जातीय हिंसा का इतिहास रहा है, कुकी समुदाय भी ग्रेटर नागालैंड के तर्ज पर कुकी बहुल पूर्वोत्तर राज्यों को मिलाकर कुकीलैंड का माँग कर रहे थे। और दोनों समुदायों के बीच हमेशा से तनाव का कारण था, पहाड़ी क्षेत्रों पर अधिकार का। क्योंकि दोनों ही आदिवासी समुदाय पहाड़ी क्षेत्रों के निवासी थे।इन विद्रोहों को देखते हुए केंद्र सरकार ने साल 1956 में मणिपुर को केंद्र शासित राज्यों के अधीन कर लिया, जो साल 1972 तक जारी रहा।
इसके बाद साल 1958 में ग्रेटर नागालैंड समर्थकों, मणिपुर के अलगाववादी संगठनो और कुकी विद्रोहियों के संघर्ष को रोकने के लिए, भारत सरकार ने पूर्वोत्तर के राज्यों में सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम लागू कर दिया। जिसे AFPSA के नाम से भी जाना जाता है। यह कानून भारत के जम्मू कश्मीर में भी लागू है। इस कानून के पूर्वोत्तर राज्यों में लागू होते ही, आम नागरिकों ने भी विवादित बता दिया। क्योंकि इस कानून के तहत सैन्य और अर्ध सैनिक बलों को विशेष शक्तियाँ प्रदान की गयी थी, जिस कारण नागरिक समूहों को भी लगने लगा यह कानून आने वाले समय में विवादों को जन्म देगा। जो बाद के समय में कभी कभी सही साबित भी हुआ।उसके बाद अलगाव वादियों से वार्ता, और शांति के कोशिश के बीच 21 जनवरी 1972 को मणिपुर को अलग राज्य घोषित कर यहाँ संवैधानिक पहलुओं को लागू करने का पहल किया गया। फ़िर साल 1975 में केंद्र सरकार से समझौते के बाद सबसे बड़े नगा विद्रोही गुट ‘नगा नेशनल काउंसिल’ ने आत्मसमर्पण कर दिया। लेकिन नागा आंदोलन में आगे रहे टी मुईया के गुट ने उस समझौते का विरोध करते हुए अपने माँग को लेकर लड़ते रहने का फ़ैसला किया, जिससे विद्रोही रुख कम नहीं हुई।
फिर साल 1980 में टी मुइया ने नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) नामक उग्रवादी संगठन का स्थापना किया। और जब मणिपुर पूर्ण रूप से भारत का हिस्सा बना, तो नागा आंदोलन इस राज्य में और भी सक्रिय हो गया, जिसके परिणाम स्वरूप साल 1980 में कुकी नेशनल संगठन और कुकी नेशनल आर्मी का गठन हुआ। और जब नागा विद्रोहियों के ग्रेटर नागालैंड के समकक्ष वर्षों से चल रही कुकीलैंड का माँग रखा, तो नागा विद्रोहियों ने कुकी संगठनो के विरुद्ध जंग छेड़ दिया, जिसके प्रतिक्रिया में कुकी समूहों के विद्रोही गुटों ने हथियार उठा लिए, और यहीं से शुरू हुई दोनों आदिवासी समुदायों में मतभेद और यही मतभेद आगे चलकर दोनों समुदायों के बीच संघर्ष का कारण भी बन गया। क्योंकि नागा उग्रवादी समूहों द्वारा पहले से हथियार उठा लिए जाने के कारण, कुकी समूहों को भी हथियार उठाना पड़ा। और कुकी समूहों से भी कई उग्रवादी संगठन पनप गए। फिर मणिपुर के भारत का हिस्सा बनने के बाद कई वर्षों तक बहुकोणीय संघर्ष में तीनों उग्रवादी समूहों के कई गुटों के बीच मुठभेड़े होती रही, तो वहीं सैन्य बलों और सुरक्षा बलों का भी विद्रोही गुटों से टकराव होता रहा, जिस कारण कई विद्रोही और सुरक्षा बल के जवान और अधिकारी मौत का शिकार हुए। इन संघर्षो में कई बार निर्दोष आम नागरिक की भी जाने गयी। इन्ही जातीय पहचानों और सम्पति अधिकारों को लेकर चल रहे खूनी खेल में जोमी समुदाय का नेतृत्व करने वाले जोमी रेवोल्यूशनरी आर्मी जैसे कई और छोटे छोटे जातीय समूहों में हथियार उठाने का प्रचलन बढ़ गया, जो नब्बे के दशक तक चरम पर रहा। हालाँकि 1972 में मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिये जाने के बाद मणिपुर के कई विद्रोही गुटों ने हथियार डाल कर, राज्य सरकार के साथ जाने का फैसला किया। लेकिन मणिपुर के कई गुटों ने स्वतंत्र देश के विचारधारा के कारण विद्रोह का रास्ता को सही ठहराया। इधर मणिपुर के कई विद्रोही गुट भले ही हथियार डाल रहे थे, लेकिन नागा और कुकी विद्रोही अपनी अपनी योजनाओ को लेकर संगठन को और भी मजबूत कर रहे थे।
जिसके बाद नागा और कुकी विद्रोहियों के खिलाफत से उत्पन्न खतरे को देखते हुए केंद्र सरकार ने 1980 में मणिपुर को “अशांत क्षेत्र” घोषित कर दिया। और सरकार द्वारा ओपरेशन ऑफ क्लियर चलाया गया, इस अभियान के तहत पहाड़ी इलाकों से चल रहे उग्रवादी गतिविधियों पर सैन्य कार्रवाई करना था। फिर सरकारी पहल, नागरिक अपील और उग्रवादी समूहों से वार्ता के बाद साल 1997 में नागालैंड आंदोलन के अगुवा संगठन NSCN-IM और भारत सरकार के बीच समझौता किया गया। लेकिन समझौते के बावजूद झण्डा और अलग संविधान को लेकर बात नहीं बनी, और वर्ष 2015 में केंद्र सरकार के द्वारा दोबारा प्रयास किया गया। लेकिन मामला अब भी लटका हुआ है। नागा आंदोलन के इस बड़े समझौते के बाद भी, मणिपुर के उग्रवादी समूहों, कुकी विद्रोही समूहों और नागा समूहों के कई छोटे छोटी टुकड़ियो के कारण हिंसक झड़प, आपराधिक घटनाएं, मुठभेड़ होती रही।और साल 2008 में मणिपुर के वर्तमान राज्य सरकार, केंद्र सरकार और कुकी विद्रोहियों के बीच समझौता होने से शांति का पहल हुआ, लेकिन कई छोटे छोटे उग्रवादी संगठन तब भी सक्रिय थे, और इन्ही बचे खुचे उग्रवादी समूहों के कारण मणिपुर का इलाका कई बार बीच बीच में आशांत होता रहा।और अब जो जातीय हिंसा मणिपुर में भड़की है, इसमें बड़ी भूमिका इन्ही छोटी छोटी उग्रवादी समूहों का है।
रोचक बात यह है कि मणिपुर में दशकों तक चली जातीय हिंसा को रोकने में मेतेइ समुदाय ने बाद के दिनों में बड़ी भूमिका निभाई, और आदिवासी समूहों के आपसी जातीय संघर्ष को खत्म करवाने का पहल किया। मेतेइ समुदाय के आगे आने के बाद नागा और कुकी समुदायों के कड़वे संबंध को पटरी पर लाने का पहल किया गया। लेकिन हाल में हुई कुकी मेतेइ जातीय संघर्ष ने मणिपुर में एक बार फिर से सबकुछ बर्बाद कर दिया है। मेतेइ समुदाय और आदिवासी कुकी समुदाय के आमने सामने आकर मरने मिटने के पीछे का इतिहास बहुत पुराना भी नहीं है। यह हाल में शुरू हुई सरकारी आंकड़ो में एक जातीय पहचान को लेकर है। मेतेइ एक समुदाय है जिसके अंतर्गत कई समूह हैं, कुछ पिछड़े वर्ग तो कुछ अनुसूचित जाति के श्रेणि में दर्ज हैं, मेतेइ समुदाय की धार्मिक मान्यता भी अलग अलग है, अधिकतर मेतेइ समूह हिंदू धर्म के मानने वाले हैं और कुछ इस्लामिक मान्यता को भी मानते हैं।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों से मेतेइ समुदाय राज्य में अपने समुदाय को अनुसूचित जनजाति यानी की आदिवासी श्रेणि में दर्ज करने की माँग कर रहे हैं। इसके लिए कई बार राज्य के घाटी इलाकों में आंदोलन भी किया गया था। घाटी और पहाड़ियों वाले इस राज्य में सरकारी सूची में दर्ज आदिवासी समुदाय के लोग मेतेइ समुदाय को सामान्य श्रेणि के मानते हैं, क्योंकि आदिवासी समुदायों का कहना है कि राज्य के सम्पतियों और संवैधानिक अधिकारों में मेतेइ लोगों का एकतरफा प्रभुत्व है, इसलिए मेतेइ समुदाय के जनजाति पहचान की माँग के बाद से ही आदिवासी समुदाय इसका विरोध करते रहे हैं। जबकि मेतेइ समुदाय के जनजाति पहचान के माँग को लेकर अपना अलग ही तर्क है। मेतेइ समुदाय के संगठनो और नेताओं का कहना है कि राज्य के मेतेइ समुदाय के लोग आदिवासी समुदायों की जमीनें कानूनी तौर पर नहीं खरीद सकते जबकि कुकी नागा जैसी आदिवासी समुहेँ मेतेइ समुदायों के जमीनों को खरीद सकते हैं। दूसरा तर्क है, साल 2021 में मयांमार में सैन्य तख्तापलट के बाद वहाँ से भाग कर आये कुकी और रोहांगिया समुदायों और बंगलादेशी घुसपेठियों के कारण उनके जातीय पहचान और अधिकार को खतरा है। लेकिन इन दोनों तर्को के बावजूद विशेषज्ञों का मानना है कि मेतेइ समुदाय के जनजाति पहचान के पीछे दो और भी मुख्य कारण है, जिसमें राजनीतिक आरक्षित सीटों और नौकरियों पर फायदा, और मुनाफेदार पोस्ता यानी अफीम के खेती में हिस्सेदारी, जिसे मेतेइ नेता खुलकर नहीं बोलते। क्योंकि पोस्ता की खेती और व्यापार अवैध होने के बावजूद मुनाफे का सौदा है लेकिन इसकी खेती सिर्फ पहाड़ी क्षेत्रों में होती है। और इन पहाड़ी क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों का वर्चस्व है, खासकर कुकी और नागा समुदायों का, जिस कारण मेतेइ समुदाय के कई समूह इन पहाड़ी क्षेत्रों में स्थापित नहीं हो पा रहे हैं, इसके लिए कई बार मेतेइ समुदाय के प्रभाव वाली सरकार द्वारा पोस्ता के खेती को लेकर कानूनी दांवपेच भी खेला गया लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी। क्योंकि पोस्ता की खेती को करने के लिए आदिवासि समुदाय के कई समूह सरकार के अधीन वाली रिजर्वड फॉरेस्ट का उपयोग सबसे ज्यादा करती है। जिस कारण मेतेइ समुदाय से आने वाले बिरेन सिंह सरकार के द्वारा इन सुरक्षित जंगलो में गवर्नमेंट लैंड सर्वे करवाया गया। जिसके बाद आदिवासियों द्वारा खेती की जाने वाली जमीनों को सरकारी नियम का हवाला देकर खाली कराना शुरू किया गया। लेकिन आदिवासी समुदायों ने इसका विरोध कर दिया, और 28 अप्रैल के दिन the Indijenas tribal leaders forum के नेतृत्त्व वाली संगठन ने आदिवासी बहुल चुराचंद्रपुर में एक दिन का बंद बुलाया था, और इसी रात उग्रवादी संगठनो के कई लोगों ने ITLF के आड़ में तुइ वोंग इलाके के फॉरेस्ट रेंज ऑफिस को आग के हवाले कर दिया। इसके बाद सरकार के विरुद्ध तनाव का विस्तार नोनी, विष्णुपुर जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में भी फैल गया। इसके बाद सरकार पर आरोप लगा की मेतेइ समुदाय को आदिवासियों का हक छीनकर देने का कोशिश किया जा रहा है। तब मजबूर होकर सरकार को यह सर्वे रोकना पड़ा। इसके बाद मेतेइ समुदाय के अगुवा संगठनो को जनजाति का दर्जा देने की माँग को और तेज कर दिया।
सदन में मेतेइ समुदाय के प्रभुत्व होने के कारण सरकार भी इस आंदोलन के पक्ष में खड़ी दिखती रही, खास बात यह है कि राज्य के मुख्यमंत्री बिरेन सिंह खुद मेतेइ समुदाय से संबंध रखते हैं।इस कारण मेतेइ समुदाय को एसटी का दर्जा दिये जाने का समर्थन सरकारी विभागों से मिलता रहा। और इस साल 3 मई के दिन मणिपुर उच्च न्यायालय ने मेतेइ समुदाय को जनजाति का दर्जा दिये जाने के लिए सरकार को विचार करने का आदेश दिया। इसके बाद ही मेतेइ और कुकी समूहों के आमने सामने होने की घटनाएँ शुरू हो गयी। क्योंकि हाई कोर्ट से निर्देश के बाद आदिवासी समुदायों का नेतृत्व कर रहे ऑल ट्राईबल् स्टूडेंट यूनियन ने 3 माई को राज्य भर में विरोध में रैली निकाला। जिसके बाद तनाव की स्थिति पैदा हो गयी। और इसी तनाव के कारण आक्रोशित मेतेइ समुदाय के लोगों ने कुकी समुदाय के शान कहे जाने वाले एंग्लो कुकी युद्ध स्मारक गेट को आग के हवाले कर दिया। फिर कुकी समूहों ने भी प्रतिशोध में कुकी बहुल पहाड़ी जिला चुराचंद्रपुर में बसे मेतेइ समुदाय के कई गाँवो को आग के हवाले कर दिया। जिसमें भारी मात्रा में जान माल का क्षति हुआ। यह तनाव की स्तिथि और फैली और इस बार मेतेइ समुदाय के लोगों ने मेतेइ बहुल इंफाल घाटी में बसे कई कुकी समुदायों के इलाकों को आग लगा दिया, घरों को भारी नुकसान पहुंचाया गया, जिस कारण कई लोगों की मौत हो गयी। और यह सिलसिला अब तक जारी है जिसमें सैकड़ों जानें चली गयी, कई लोग बेघर हो गए, कई परिवार उजड़ गए।
लेख द्वारा- सूरज सुधानंद