L19 DESK : सरकारी स्कूल में पढ़ रहे आठवीं से दसवीं कक्षा के बच्चों को साइकिल मिलने की राह में नये रोड़े सामने आ गये हैं। साइकिल खरीद के लिए बनी सरकार की कमेटी से आदिवासी कल्याण आयुक्त लोकेश मिश्रा ने अपने को अलग कर लिया है। अब नया पेंच यहां पर फंसा है कि साइकिल खरीद को लेकर निविदा कौन निकालेगा, कल्याण विभाग या आदिवासी कल्याण आयुक्त कार्यालय। अनुसूचित जाति, जनजाती और अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के मंत्री चंपाई सोरेन और विभागीय सचिव चाहते हैं कि साइकिल खरीद की निविदा की शर्तों में बदलाव किया जाये। इस पर आदिवासी कल्याण आयुक्त ने सरकार को स्पष्ट कह दिया है कि नियमों में बदलाव करना सीवीसी के नियमों के खिलाफ है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि आदिवासी कल्याण आयुक्त का कार्यालय साइकिल खरीद का टेंडर नहीं निकालेगा। उन्होंने विभागीय सचिव से अनुशंसा की है कि उन्हें इस काम से अलग रखते हुए विभागीय स्तर पर साइकिल का टेंडर निकाल लिया जाये।
आखिर क्या है पूरा मामला
राज्य सरकार 120 करोड़ रुपये का प्रावधान साइकिल खरीदने के लिए हर साल करती है। कोरोना के समय से 2020-21, 2021-22, 2022-23 और अब 2023-24 के लिए अब तक साइकिल खरीद का मामला फाइनल ही नहीं हो पाया। सरकार ने पूर्व की रघुवर दास की सरकार के समय तय साइकिल खरीद की राशि में भी बदलाव कर दिया और यह कहा कि लाभुक छात्रों के खाते में साइकिल का पैसा नहीं दिया जायेगा। अब देखा जाये, तो कुल 480 करोड़ ट्रेजरी में साइकिल खरीद के नाम से पड़े हुए हैं। साइकिल खरीद के लिए आदिवासी कल्याण आयुक्त के उप निदेशक एसके सिंह के काफी प्रयास करने के बाद भी कंपनियों का चयन नहीं हो पाया। सरकार हीरो, हरक्यूलिस और एटलस सरीखी कंपनियों से साइकिल लेना नहीं चाहती है। साइकिल बनानेवाली बी ग्रेड की कंपनियां एसके बाइक, नीलम, कोहिनूर साइकिल से एसके सिंह ने कई दौर की बातें भी की, पर बात नहीं बनी। आदिवासी कल्याण आयुक्त लोकेश मिश्र साइकिल के टेंडर की शर्तों में बदलाव के पक्ष में नहीं हैं।
उनका तर्क है कि लड़के और लड़कियों के लिए एक ही टेंडर निकलना चाहिए, लेकिन मंत्री जी इसके पक्ष में नहीं है। आयुक्त मिश्रा का तर्क है कि टर्नओवर कम करने से छोटी कंपनियां आएंगी, जिससे कई समस्याएं पैदा होंगी। मसलन क्वालिटी के साथ समझौता होगा। इसके साथ ही उनका यह भी मानना है कि ब्रांडेड कंपनियों के होने से क्वालिटी ठीक रहेगी और समय पर साइकिल भी मिल सकेगी। मंत्री चंपाई सोरेन और सचिव श्रीनिवासन चाहते हैं कि टेंडर में भाग लेने वाली साइकिल कंपनियों के टर्न ओवर को कम किया जाए। लड़के और लड़कियों की साइकिल खरीद के लिए अलग-अलग टेंडर निकाला जाए। साइकिल खरीद में ब्रांडेड और अनब्रांडेड कंपनियों को लेकर ज्यादा तूल न दिया जाए। इसके अलावा साइकिल की डिलिवरी के समय में भी दोनों बदलाव चाहते हैं। हालांकि इसको लेकर किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं है। कल्याण सचिव के. श्रीनिवासन के हस्तक्षेप के बाद बच्चों को मिलने वाली साइकिल का टेंडर करीब दो महीने पूर्व रद्द हो गया था। गौरतलब है कि रद्द हुए टेंडर डॉक्यूमेंट में 250 करोड़ सालाना टर्नओवर और प्रतिवर्ष साढ़े सात लाख साइकिल बनाने वाली कंपनियों को भाग लेने का नियम था।
इसके पीछे तर्क दिया गया था कि चूंकि झारखंड को अभी करीब 10 लाख साइकिल की जरूरत है, ऐसे में वैसी छोटी कंपनियां जो स्वयं साल में दो या तीन लाख साइकिल का उत्पादन करती हैं, ससमय इसकी आपूर्ति नहीं कर पाएंगी। उधर भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी ने कहा है कि जिस तरह हेमंत सोरेन की सरकार ने रेवड़ियों की तरह अपने चेले-चमचों को पत्थर और कोयला खदान के लीज बांटे हैं। पर सरकार ने यहां के गरीब बच्चों को चार साल से साइकिल नहीं दिया ह। 10 लाख से ज्यादा छात्राओं को हेमंत सोरेन के कार्यकाल में साइकिल नहीं मिली है। आदिवासी कल्याण आयुक्त लोकेश मिश्रा, कल्याण सचिव के श्रीनिवासन और विभागीय मंत्री चंपाई सोरेन अब तक साइकिल की निविदा को मूर्तरूप नहीं दे पाये। जाहिर है दारू सप्लाई के जैसा यहां भी सरकार को मनचाही कंपनियों का इंतजार है। विभागीय अकर्मण्यता से पर्याप्त राशि रहने के बावजूद बच्चों को साइकिल नहीं मिल पा रही है। सोरेन सरकार के विकास का यही माडल है।