L19/DESK : आज जब विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की सबसे बड़ी संविधान की बात होती है तो बाबा साहब भीमराव आंबेडकर से लेकर उन सभी महान व्यक्तियों को याद किया जाता जिन्होंने संविधान निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।तब जाकर 2 साल 11 महीने 18 दिन की लम्बी अवधि के बाद 26 नवंम्बर 1949 को हमारा संविधान बनकर तैयार हुआ था और अंततः 26 जनवरी 1950 को इसे पुरे देश में लागु किया गया और तब से हमारा देश पूर्ण रूप से गणतंत्र बना।आज देश अपना 75 वां गणतंत्र दिवस बना रहा है।
लेकिन क्या आपको पता है संविधान सभा में कुछ सदस्य आदिवासी समुदाय से भी थे जिन्होंने संविधान निर्माण में आदिवासियों के हक़ अधिकार को शामिल करने के लिए अपने महत्वपूर्ण सुझाव संविधान सभा में रखे थे।
प्रारंभ से ही राजनैतिक व सामाजिक बुनावट में पिछड़ा मानी जाने वाले आदिवासी स्वतंत्र भारत की नींव के मजबूत ईकाई रहे हैं. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे बड़े संविधान के निर्माण में उनका प्रभावी दखल रहा है। भारतीय संविधान सभा के कुल 389 सदस्यों में से पांच सदस्य आदिवासी समुदाय से थे, जिनमें झारखण्ड खूंटी से मरांग गोमके नाम से प्रसिद्ध जयपाल सिंह मुंडा,लोहरदगा से बोनिफेस लकड़ा और चाईबासा से देवेंद्र सामंत इसके आलावा पूर्वोत्तर भारत के मेघालय से जेम्स जॉय मोहन निकोलस रॉय और छतीसगढ़ से रामप्रसाद पोटाई शामिल थे।उपर्युक्त पांचों आदिवासियों ने तत्कालीन भारत के लगभग 6 प्रतिशत आदिवासियों का प्रतिनिधित्व किया था।
इन पांचो आदिवासी प्रतिनिधियों में दिसंबर 1946 में संविधान सभा में जयपाल सिंह मुंडा द्वारा दिया भाषण आज भी लोगों को याद है जिसमें उन्होंने आदिवासियों की जंगली स्वाभाव होने पर गर्व की बात कही थी…और भारी सभा में संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था….
“मैं उन लाखों लोगों की ओर से बोलने के लिए खड़ा हुआ हूँ, जो सबसे महत्वपूर्ण लोग हैं, जो आज़ादी के अनजाने लड़ाके हैं, जो भारत के मूल निवासी हैं और जिनको बैकवर्ड ट्राइब्स, प्रिमिटिव ट्राइब्स, क्रिमिनल ट्राइब्स और जाने क्या-क्या कहा जाता है। पर मुझे अपने जंगली होने पर गर्व है क्योंकि यह वही संबोधन है, जिसके द्वारा हमलोग इस देश में जाने जाते हैं। मैं जिस सिन्धु घाटी सभ्यता का वंशज हूँ. उसका इतिहास बताता है कि आप में से अधिकांश लोग जो यहाँ बैठे हैं, बाहरी हैं, घुसपैठिये हैं, इसके कारण हमारे लोगों को अपनी धरती छोड़कर जंगलों में जाना पड़ा। इसलिए यहाँ जो संकल्प पेश किया गया है, वह आदिवासियों को ‘लोकतंत्र’ नहीं सिखाने जा रहा। आप सब आदिवासियों को लोकतंत्र सिखा ही नहीं सकते, बल्कि आपको ही उनसे लोकतंत्र सीखना है।आदिवासी पृथ्वी पर सबसे लोकतांत्रिक लोग हैं।”
इसके आलावा 6 सितंबर 1949 को संविधान सभा में पुर्वोत्तर भारत के लोगों पर नस्लीय टिप्पणी पर जेम्स जॉय मोहन निकोलस का भाषण भी काफी चर्चा में रहा है जिसमें उन्होंने कही थी ….
“उत्तरी कछार पहाड़ियों में कचारियों के एक वर्ग को छोड़कर कोई भी जनजाति हिंदू धर्म या इस्लाम को नहीं मानती है, जो हिंदू धर्म का एक रूप है। तिब्बती बौद्ध धर्म को उत्तरी पहाड़ियों और बर्मन बौद्ध धर्म को तिराप फ्रंटियर ट्रैक्ट में पेश किया गया है।विशेष रूप से नागाओं, लुशाइयों और खासों में काफी संख्या में आदिवासी ईसाई हैं, बाकी आदिवासी एनिमिस्ट हैं। जीववादियों और अन्य लोगों के बीच कोई साम्प्रदायिक भावना नहीं है।
” हिंदू बीफ नहीं खाते लेकिन आदिवासी खाते हैं. मुसलमान सूअर का मांस नहीं खाते हैं लेकिन आदिवासी लोग खाते हैं. इसलिए ये लोग न तो हिंदू हो सकते हैं और न ही मुसलमान। सरकारी रिपोर्ट यह है कि पहाड़ियों के लोगों की अपनी संस्कृति है जो मैदानी इलाकों से काफी अलग है। सामाजिक संगठन, गाँव, गोत्र और जनजाति का होता है और बाहरी रूप और संरचना आम तौर पर दृढ़ता से लोकतांत्रिक होती है। जाति या पर्दा की कोई व्यवस्था नहीं है और बाल विवाह का प्रचलन नहीं है, तो वह पहाड़ी जनजातियों की संस्कृति है।भारत को उस भावना या समानता और वास्तविक लोकतंत्र के विचार के लिए उठना चाहिए जो आदिवासी लोगों के पास है।उन्हें एक पल के लिए भी यह नहीं सोचना चाहिए कि इन लोगों को अपने लोकतंत्र और समानता को छोड़ देना चाहिए और दूसरी संस्कृति द्वारा निगल लिया जाना चाहिए, जो उनकी आदत से काफी अलग है, और जिसे वे अपने समाज के लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं मानते हैं।”
कहीं ना कहीं इन पांचो आदिवासी प्रतिनिधियों की भागीदारी के कारण ही भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए भी कुछ प्रावधान दिए गए हैं जिनमें से अनुच्छेद 15 (4) (164), अनुच्छेद 19 (5), अनुच्छेद 23 29,164, 340, 332, 334, 335,338, 339(1),342, 371(क), 371(ख),371 (ग) और पांचवी अनुसूची एवं छठवीं अनुसूची हमें दी गई है।