RANCHI : सरना कोड, झारखंड के आदिवासियों के अस्तित्व का सवाल या झारखंड का सबसे बड़ा एजेंडा जिसके बहाने झामुमों, कांग्रेस राजनितिक रुप से भाजपा को पटकनी देने में सफल रही है। 2001 जनगणना के अनुसार, झारखंड में आदिवासी समुदाय की संख्या 70 लाख 87 हजार थी। यह राज्य की कुल आबादी का 26.3 फीसदी था. 2001 में झारखंड की कुल आबादी 2 करोड़ 70 लाख आस पास थी. फिर साल 2011 में झारखंड में आदिवासी समुदाय की कुल जनसंख्या 86 लाख 45 हजार थी। साल 2011 2011 में झारखंड की कुल आबादी 3 करोड़ 30 लाख आस पास थी।
2011 की जनगणना के अनुसार पुरे भारत में आदिवासियों की संख्या लगभग 10.42 करोड़ है यानि पुरी आबादी का 8.6% प्रतिशत. भारत में आदिवासी मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र और पूर्वोत्तर राज्यों में निवास करते हैं. भारत में 461 आदिवासी समुह निवास करते हैं. इनमें से 32 समुह झारखंड में निवास करते हैं।
अब सवाल है कि क्या पुरे भारत के आदिवासियों सरना धर्म कोड की मांग कर रहे हैं या सिर्फ झारखंड के दक्षिणी छोटानागपुर के आदिवासी ही इसकी मांग कर रहे हैं?
सन 1871 से लेकर 1951 तक की जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड मौजूद था। लेकिन 1961 की जनगणना से इसे षड्यंत्रपूर्वक हटाकर ‘अन्य’ (Others) की श्रेणी में डाल दिया गया। इसका प्रत्यक्ष नुकसान यह हुआ कि आदिवासी समाज धार्मिक पहचान से वंचित हो गया।
आदिवासी समाज के एकता और धर्म की पहचान को लेकर सर्वप्रथम प्रयास स्व. कार्तिक उरांव ने किया। उन्होंने अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद की स्थापना की और ‘आदि धर्म’ को आदिवासियों के साझा धर्म के रूप में प्रचारित किया। 1968-69 में उन्होंने देशभर के आदिवासी समुदायों से व्यापक संवाद किया। इसी प्रकार वर्ष 1970 से लेकर वर्ष 1980 तक पड़हा दीवान भारत के भीखराम भगत ने भी आदि धर्म के लिए बहुत काम किया, आदिवासियों के लिए आदि धर्म हो इसके लिए उन्होंने बहुत प्रयत्न किए। इसके बाद पद्मश्री स्व. डॉ. रामदयाल मुंडा भी आदि धर्म कोड के समर्थक थे। उन्होंने आदि धर्म नाम का किताब भी लिखा था। उन्होंने भी अलग आदि धर्म के लिए काफी प्रयत्न किया।
वर्ष 2000 से राजी पड़हा सरना प्रार्थना सभा के बंधन तिग्गा और आदिवासी छात्र संघ के वर्तमान विधायक चमरा लिंडा द्वारा सरना धर्म कोड के लिए बहुत सारे आंदोलन किए गए। ये दोनों सरना धर्म के बड़े समर्थकों में से एक हैं।2003 में देवकुमार धान और छत्रपति शाही मुंडा ने इस मुद्दे को आंदोलनात्मक रूप दिया। 2015 में जंतर मंतर पर विशाल धरना हुआ और प्रधानमंत्री व गृहमंत्री को ज्ञापन सौंपा गया। 20 नंबर 2015 को आये जवाब में भारत के महारजिस्ट्रार ने यह कहा कि 2011 की जनगणना में 100 से अधिक आदिवासी धर्म दर्ज हुए थे, इसलिए एक अलग धर्म कोड देना व्यावहारिक नहीं है। इस जवाब के बाद यह आंदोलन झारखंड से निकलकर पूरे देश में फैल गया।
- मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ :
गोंड, भील, बैगा, कोरकू जैसे समुदायों ने बार-बार अलग ‘आदिवासी धर्म’ कोड की मांग की है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और गोंड समाज महासभा जैसे संगठन इसके लिए सक्रिय हैं। - ओडिशा :
संथाल, हो, मुंडा, खड़िया, सौरा समुदायों ने जनगणना में ‘सरना/आदिवासी’ धर्म को दर्ज कराने के लिए अभियान चलाए। आदिवासी धर्म महासंघ जैसे संगठनों ने बड़ी भूमिका निभाई। - महाराष्ट्र और गुजरात :
वारली, कोलाम, भील, गोंड समुदायों ने 2018 के गुजरात सम्मेलन में शामिल होकर आदिवासी धर्म कोड के पक्ष में राष्ट्रीय सहमति बनाई। - राजस्थान :
भील, मीणा, गरासिया समुदायों ने अलग धार्मिक पहचान की मांग उठाई। कई संगठनों ने ज्ञापन सौंपे और रैलियाँ आयोजित कीं। - पूर्वोत्तर भारत :
बोडो, गारो, कूकी, ज़ोमी, नागा जैसे समुदायों की परंपराएं भी प्रकृति पूजा पर आधारित हैं। इनमें से कई समुदाय अपने पारंपरिक धर्मों को मान्यता देने की मांग करते रहे हैं।
2018 में गुजरात में हुए अखिल भारतीय आदिवासी सम्मेलन में देशभर के प्रतिनिधियों ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया कि : “हम न हिंदू हैं, न ईसाई। हम प्रकृति पूजक हैं। हमारे पर्व, भाषा, संस्कृति, पूजा-पद्धति — सभी कुछ हमें अलग बनाते हैं। इसलिए हमें संविधान और जनगणना में अलग धर्म के रूप में मान्यता दी जाए।”
झारखंड में जहां ‘सरना’ नाम प्रचलित है, वहीं मध्य भारत में ‘आदि धर्म’ और पूर्वोत्तर में ‘परंपरागत धर्म’ के नाम से पहचान है। हालांकि नाम अलग-अलग हैं, पर उद्देश्य एक है – एक साझा धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान की संवैधानिक मान्यता।
वर्ष 2013 में लोकसभा सदस्य सुदर्शन भगत ने लोकसभा में अलग धर्म कोड का मसला उठाने के साथ ही तत्कालीन प्रधानमंत्री को भी इस संदर्भ में पत्र लिखा था।
सुदर्शन भगत ने प्रधानमंत्री को प्रेषित पत्र में झारखंड समेत, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और बंगाल का जिक्र करते हुए कहा था कि यहां के आदिवासियों द्वारा अपना अलग धर्म कोड दिए जाने की मांग लंबे समय से की जा रही है। उन्होंने अनुरोध किया था कि आदिवासी समाज को अलग धर्म कोड आवंटित किया जाए, जिससे देश में यह समाज स्वाभिमान पूर्वक जीवन यापन कर सके। सुदर्शन भगत द्वारा उठाए गए इस विषय पर तत्कालीन जनजातीय कार्य और पंचायती राज मंत्री किशोर चंद्र देव ने विस्तृत उत्तर दिया था। किशोर चंद्र देव ने स्पष्ट कहा था कि जनजातीय समाज को अलग धर्म कोड दिए जाने के संबंध में सरकार के स्तर से कोई निर्णय नहीं लिया गया है।
सरना कोड़ यह झारखंड की राजनीति का एक बड़ा एजेंडा बन चुका है। इसी के माध्यम से झामुमो और कांग्रेस ने राजनीतिक रूप से भाजपा को पीछे धकेलने में सफलता प्राप्त की है।