“सातों भईया सातों करम गड़ाय-2, सातों गोतनी सेवा कराएं”-2
“ओ आईयोगे पेलो चिचगा जंवा पुप बन नेलागु टिजोगा बा… केरे नेलागु टिजोगा बा के”
“ताई केनम वीरभु तला रे… हिजा कनम तीसीन आले तला रे-2
घूमा दारू रे ओ करम राजा”-2
L19 DESK : इन दिनों ऐसे अनेकों सादरी,नागपुरी,कुड़ुख मुंडारी गीत-संगीत आप अपने मोबाइल के Youtube, Feacbook, Instagram और अन्य संगीत माध्यमों में सुन रहे होंगे और सुनेंगे भी क्यूँ नहीं, क्यूंकि प्रकृति के सबसे बड़े उत्सवों में से एक करम परब जो आ रहा है। सावन के अंत होते ही खेतों में रोपे गए धान की फसलों में हरियाली आने के साथ और सड़क किनारे,नदी-नालों के इर्द-गिर्द और बंजर-परती खेतों में सफ़ेद चादर सी बिछी कासी के फूलों का खिलने के साथ ही करम उत्सव का आगमन हो जाता है।
जी हाँ आज हम बात कर रहे हैं झारखंड सहित छतीसगढ़,उड़ीसा, एमपी,पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों में बड़े धूमधाम से मनाये जाने वाला प्रकृति महाशक्ति का सबसे बड़े त्येवहारों में एक करम परब की। साथ ही आज हम जानेंगे कि आखिर भाद्रपद माह के भादो एकादशी को मनाई जाने वाली करम परब की वैज्ञानिक प्रामाणिकता में कितनी सच्चाई है और आखिर पूर्वजों ने इस परब को प्रकृति के सबसे बड़े पर्वों में क्यूँ गिना है और इसकी मानव जीवन में क्या प्रासंगिकता है? किसी भी समाज के चरित्र गठन का मूल आधार उस समाज मे रहने वाले लोगों की भाषा संस्कृति और उनकी परम्पराओं पर निर्भर करती है।
विविधताओं से भरा हमारा देश ऐसे ही अनेक संस्कृतियों और परम्पराओं का पोषक भूमि रहा है, लेकिन झारखंड की संस्कृति और परम्परा की एक अलग ही विशिष्टता देखने को मिलती है जो इन्हे देश में इनकी एक अलग प्राचीनतम आदिम संस्कृति वाले राजों की गिनती में रखती है। इसी प्राचीनतम बिशेषताओं का सूचक है झारखंड की करम उत्सव। यह सांस्कृतिक त्येउहार प्रकृति महाशक्ति पर आधारित है और अति प्राचीन होते हुये भी हर साल इसमें एक नयापन देखने को मिलता है और यह भी एहसास कराता है कि यह कभी भी पुराना या उबाऊ नही हो सकता, बल्कि आधुनिकता के इस दौर में नए और पुराने दोनों प्ररूपों को समेटते हुये अपनी मूल अवस्था को बरकरार रखा है।
प्राचीनकाल से ही हमरे पूर्वजों ने बहुत ही गहन चिंतन मनन और शोध करके प्रकृति महाशक्ति के गुणों को परख कर करम परब के विधि-विधान को स्थापित किए हैं जिनका सही तरीके से अनुपालन करने से मानव जीवन के पीढ़ी दर पीढ़ी विकास में सहायक सिद्ध होता है और समाज सुख-शांति के साथ जीवन यापन कर पाती है। गीत, धुन और नाच के नियमों से भरपूर यह पर्ब समूहिक रूप से प्रकृति का आराधना करने का एकमात्र वैश्विक मिशल कायम करने वाला परब है। प्रकृति महाशक्ति के गुणों से ही संसार में जीवों का सृजन,पालन और विनाश होता आया है यह तथ्य वैज्ञानिक रूप से युक्ति संगत एवं वास्तविक भी है इसके अलावा समाज गठन का आधार नारी एवं पुरुष का सृजन भी प्राकृतिक नियमानुसार ही होता है।
नारियों में कुछ बिशेष सृजनशील छमता होती है इन्ही नारियों का प्रथम रूप है कुवांरी अवस्था का रूप एवं इन कुवांरी बालाओं को ही इस परब में विधि विधान पालन करने का व्रती होने का सौभाग्य प्राप्त है और इन व्रतियों द्वाराइन विधि विधानों का निष्ठापूर्वक अनुपालन करने से सुख समृद्धि की वृद्धि होती है। इसके अलावा करम नामकरण के पीछे भी एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य देखने को मिलता है जिसके तहत करम का अर्थ काम या कार्य से लिया जाता है। प्राचीन काल से ही पूर्वजों ने करम यानी काम को तीन श्रेणियों में बांटा है उच्चतम माध्यम और निम्न श्रेणी।
इस संबंध में पूर्वजों ने एक कहावत कही है…”उच्चतम खेती मध्यम बाण, नीच चकरी भीख निदान” अर्थात इस कहावत के आधार पर कर्मों में कृषि को उच्चतम, बिसनेस को माध्यम और नौकरी को निम्न स्तर का माना गया है साथ ही इस संसार में भीख मांगने का काम को सबसे खराब काम माना गया है जो कर्म दायरे में ही नही आता है।कृषि यानी श्रेष्ठ कर्म का ही एक प्रारम्भिक चरण होता है…. बीज़ को मिट्टी में बोकर बीचड़ा या पौधा तैयार करना एवं श्रेष्ठ कार्य कृषि की आराधना हेतु इसी चरण के रूप को आराध्य स्वरूप जाउवा डाली में देखने को हमें मिलता है।
इस तरह यह परब कर्म चेतना को पीढ़ी पीढ़ी दर पीढ़ी जागृत करने का एक मध्यम है। करम पूजा में कुवांरी बालाओं नको जाऊवा बुनने से लेकर डाइरपूजा तक कई प्रकार के नियम पालन करने पड़ते हैं। जैसे जाऊवा में रोज सुबह शाम हल्दी पनि सींचना,रोज शाम को पवित्र अखाड़ामें जाऊवा रखा कर गीत गाते उसकी भक्ति परिक्रमा नृत्यपूर्वक वंदना करना। उन सात से नौ दिनों तक साग नहीं खाना, खट्टा दही नही खाना अपने हाथ से दातुन नही तोड़ना ,खाने में स्वव्म से ऊपर नमक नही डालना,गुड़ नही खाना…. जैसे अनेकों विधि विधानों को मानना पड़ता है तब जाकर सुख समृद्धि की कामना की जा सकती है। हमारे पुरखाओं ने मानव समाज में कुवांरी लड़कियों को ही पुष्प सदृश्य माना है इसलिए अक्सर हम इनकी तुलना फूलों से करते आयें हैं और हमरे बहुत से पूर्वज फूलों के नाम से ही इनका नामकरण रखते हैं।
अत यह बात सिद्ध है कि मानव समाज के फूल कुवांरी बालाओं को ही कहा जाता रहा है और आगे भी कहते रहेंगे। इसके अलावा हमारे देश के प्रायद्वीपीय भागों में आम के पेड़ों में मंजर एवं फलोंला फालना हर वर्ध माघ माह मीन होता है। इससे यह पता चलता है कि पृथ्वी अपनी विशिष्ट सीमा रेखा में घूमती हुई हर साल माघ महीने में महाकाश को ठीक उसू स्थान पर पहुँचती है और ठीक उस स्थान कि गुण शक्तियों के प्रभाव से ही इन मंजरों एवं फलों का सृजन होता है। इस तरह महाकाश के सभी स्थान एक दूसरे विशिष्ट प्रकार के गुण शक्तियों से लैस होते हैं और इसी भादो में एकादशी तिथि के समय काल में पृथ्वी निर्दिष्ट विशेष स्थान पर पहुँचती है जहां महाकाश सृजनशील गुण छमता से भरपूर होती है।
और जैसा कि सभी को मालूम है यह वह समय होता है जब पूरे देश में प्रमुख खाद्यान्न फसल धान सहित तिलहन और दलहन आदि फसलों में गर्भधारण एवं पल्लवित होने का समयकाल होता है। येही गुण शक्तियाँ करम परब के विधि विधान द्वारा करमाइति व्रती बालाओं को प्राप्त होती है। इससे भी सिद्ध हो जाता है कि करम के भादो माह का वैज्ञानिक आधार में कितनी सच्चाई है और इसका मानव जीवन पर प्रतिकूल और अनुकूल दोनों रूपों में प्रभाव पड़ता है। तो ये रही प्रकृति महाशक्ति पर आधारित करम त्येउहार कि वैज्ञानिक आधार और मानव जीवन मेन इसकी प्रासंगिकता…. जो ये बताता है कि हमारे पुरखाओं ने भले अपने जमाने में साइंस जैसे टेकोनोलोजी से रूबरू नही थे परंतु अपनी सूझबुझ और समझ से ऐसे नियम-कानुम के साथ प्रकृति को आधार बनाते हुए परब-त्येउहारों की शुरुआत की जिसकी वैज्ञानिक प्रामाणिकता और मानव जीवन में प्रासंगिकता आज भी बरकरार है।