9 जून भगवान बिरसा मुंडा के शहादत दिवस पर लोकतंत्र 19 पर पढ़िये बिशेषांक
L19/DESK : झारखण्ड के एक ऐसे क्रन्तिकारी युवा जिसने भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद के क्रन्ति से पहले ही देश में ब्रिटिश हुकूमतों के साथ लोहा लेकर अंग्रेजों के दांत खट्टे कर चुके थे। मात्र पांच साल के अपने आन्दोलन अवधि के दौरान देश में ऐसा संगठित आन्दोलन खड़ा किया, जिसके कारण अंग्रजों को हजारों-हजार सैनिकों को इसे पकड़ने के लिए खूंटी के जंगलों में भेजना पड़ा। अपने आन्दोलन के दौरान बिरसा ने अंग्रेजों में ऐसा खौफ पैदा कर दिया था कि इसे जिन्दा या मुर्दा पकड़ने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 500 रुपये का इनाम की घोषणा की थी। जी हाँ आज से 120-25 साल पहले यानी 1895-1900 में किसी आन्दोलनकारी को गिरफ्तार करने के लिए इतनी बड़ी ईनामी रकम की घोषणा करना अपने आप में बहुत बड़ी बात थी,उस समय का 500 रुपये आज के 5 लाख के बराबर मानी जा सकती है।
जी हाँ आज हम बात कर रहे हैं इसी बिरसा मुंडा की, जिनको मात्र 25 साल की उम्र में भगवान का दर्जा दिया गया।वही भगवान बिरसा मुंडा जिसने अपने पांच साल के संघर्ष के दौरान ब्रिटिश हुकूमतों के नींद हराम कर दिए थे। 15 नवम्बर 1875 को झारखण्ड के खूंटी जिले के बीहड़ आदिवासी इलाके के उलीहातू गांव में मुंडा परिवार में जन्मे बिरसा मुंडा देश के ऐसे क्रन्तिकारी जनजाति नायक हैं, जिनके जन्मतिथि के दिन हमारा झारखण्ड राज्य का गठन किया गया। झारखण्ड में सैकड़ों चौक-चौराहे, स्कुल-कॉलेज, पार्क-उद्यानों,विमान-पतन, खेल स्टेडियम का नामकरण बिरसा मुंडा के नाम से रखा गया है। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के साथ भारत के संसद भवन में लगने वाले तस्वीर में एकमात्र आदिवासी क्रान्तिकारी शहीदों में भगवान बिरसा मुंडा का भी नाम भी मौजूद हैं। भगवान बिरसा मुंडा जनजाति समुदाय के ऐसे अगुवा थे , जिसने देश में एक नई क्रांति की इबादत लिखी।
आज है बिरसा मुंडा का शहादत दिवस यानी आज ही के दिन 9 जून 1900 ई.को भगवान बिरसा मुंडा की मृत्यु रांची जेल परिसर में हुई थी। आज इसी शहादत दिवस के अवसर पर भगवान बिरसा मुंडा की कुछ अनसुलझी-अनकही बातों को जानेंगे,जिसको शायद इतिहासकारों ने भी ठीक से इतिहास में जगह नही दी है, तो आइये शुरू करते हैं बिरसा मुंडा के आन्दोलनकारी से भगवान बनने की कहानी।
बेहद गरीब परिवार में जन्मे बिरसा बचपन से ही उग्र और अन्याय को ना सहने वालों में गिने जाते हैं। 1857 की क्रांति के बाद जब का देश का बगडोर सीधे ब्रिटिश महारानी के हाथों चला गया जिसके परिणाम स्वरूप ब्रिटिश सरकार का भारत में शासन और क्रूर हो गया था। देश में रेल के विकास ने अंगेजों की महत्वकांक्षा को बढ़ा दिया था,सोने की चिड़िया कहे जाने वाला भारत का अब तेज़ी से दोहन प्रारंभ हो गया था।अंग्रेज अपने शासन का विस्तारीकरण के लिए अब जल-जंगल पर नजर लगाने लगे थे, इसके लिए आदिवासियों के जंगलों को काटना शुरू किया जमे लगा। 1857 के बाद देश में में जमीनदारी प्रथा ने भी आम जनों को परेशान कर रखा था,यही कारण है कि धीरे-धीरे देश में जनजाति आन्दोलन प्रारंभ होने लगे और इन्ही परिस्थितियों में भगवान बिरसा मुंडा का जन्म होता है। बिरसा का परिवार बहुत गरीब था और इसी गरीबी के कारण रोजगार की तलाश में बिरसा का सपरिवार बिरसा के चाचा के यहां कुरुम्बड़ा गांव में रहने चले गए,जहाँ बिरसा के पिता ने एक जमींदार के यहाँ नौकरी शुरू की। बिरसा को बचपन में भेड़ बकरी चराने का काम दिया जाता था,मगर बिरसा बचपन से ही बहुत विद्रोही स्वाभाव के थे। इन सब से परेशान होकर मात-पिता ने बिरसा को उनके मामा के गांव अयुभातु भेज दिया। यह गांव सलगा के पास था जहां से बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा पूरी हुई। बिरसा पढ़ाई में बहुत होशियार थे। पढ़ाई में रुचि को देखते हुए उनके शिक्षक जयपाल नाग ने उन्हें आगे पढ़ने की हिदायत दी। वह उन्हें आगे की पढ़ाई के लिये चाईबासा के ईसाई मिश्नरी स्कूल से शिक्षा ग्रहण करने की सलाह देते हैं। 2 साल की पढ़ाई के बाद वह वापस अपने गांव लौट जाते है,उस दौरान अंग्रेज रेलवे का निर्माण कर रहे थे। इसके लिए वे जंगलों की भारी मात्रा में कटाई कर रहे थे और आदिवासियों के घर उजाड़ रहे थे। इसमें ब्रिटिश सरकार, जमीनदार, ठेकेदार, बड़े व्यवसायी सभी शामिल थे। जंगल महाल व्यवस्था के तहत आदिवासियों को अपनी जमीन में खेती करने के लिये भी जमीनदारों को टैक्स और भूमिगत उपज का हिस्सा देना पड़ता था। दिन प्रतिदिन आदिवासी जनता अंग्रेजी हुकूमत, जमीनदार, जागीरदार, सेठ साहूकार और व्यवसायी के शोषण का शिकार होने लगी। यही नहीं, इन जमींदार सहकर सैनिकों द्वारा आदिवासी महिलाओं का बलात्कार किया जाता था जब लोग इसकी शिकायत करने जाते थे तो कोई सुनवाई नही होती थी।
इधर 1875 में जन्मे बिरसा इन्ही परिवेश में धीरे धीरे बड़े हो रहे थे। बिरसा ने आगे की पढ़ाई करने के लिये चाईबासा के अंग्रेजी माध्यमिक स्कूल चले गए,इस स्कूल में बिरसा के दाखिला लेने का मकसद केवल अंग्रेजों की नीतियों को जानना था। उन्हें पता लगाना था कि आखिर अंग्रेज ऐसी कौन सी नीति अपनाकर लोगों को गुलाम बना लेते हैं और कैसे इन अंग्रेजों को यहां से खदेड़ा जा सकता है? इधर ईसाई मिश्नरी स्कूलों में दाखिला लेने के लिये धर्म परिवर्तन करना अनिवार्य था,इसलिये बिरसा को भी धर्म परिवर्तन करना पड़ा जिसके वजह से उनका नाम बिरसा से दाऊद हो गया। हालांकि, शिक्षक जयपाल नाग के सिखाये गये रास्ते पर चलकर बिरसा अपनी संस्कृति न त्यागकर ईसाई स्कूलों में भी बस्ते में धार्मिक ग्रंथों को ले जाया करते थे। स्कूल में दाखिला लेने के बाद बिरसा ने देखा कि इन स्कूलों में छात्रों को अपने धर्म और संस्कृति के खिलाफ भड़काया जाता है। कहा जाता था कि आदिवासी समाज के लोग धोखेबाज और गुलामी प्रवृत्ति के होते हैं इसलिये ईसाई धर्म को अपना कर राजा बना जा सकता है। इसी बीच वह एक दिन स्कूल के एक शिक्षक के साथ बिरसा का बहस हो जाता है, इस बहस के साथ ही वह ईसाई स्कूल छोड़कर वापस अपने गांव को लौट जाते हैं।
बिरसा मुंडा का बिरसाईत धरम और भगवान बनने का सफर
1885-90 के दसक में पूरे देशभर में अकाल की स्थिति थी, अकाल का दौर ऐसा था कि हर दिन कोई न कोई गरीब आदिवासी भूख से दम तोड़ रहा था, वही दूसरी ओर ऐसी भुखमरी परिस्थिति में भी आदिवासी समाज में अंधविश्वास फ़ैल हुआ था। इस अंधविश्वास के काऱण वे औरतों की मृत्यु के बाद उसके सारे गहने जेवरात मृत शरीर के साथ ज़मीन में दफन कर देते थे। यह देखकर बिरसा ने एक दिन आधी रात को जाकर उन जेवरात को निकालकर साहूकार को बेच देते हैं औऱ उसके बदले अनाज घर ले जाते हैं। जब बिरसा की इस कार्य की जानकारी उसकी मां को चलता है तो वह बहुत क्रोधित हो जाती है और उसी समय बिरसा को घर से बाहर निकाल देती है।
इस बात से दुखी होकर बिरसा कई दिनों तक गायब हो जाते हैं और जंगलों में जाकर ध्यान और तपस्या करना शुरु कर देते हैं। इसी तपस्या के बीच एक दिन आदिवासियों के सबसे बड़े देवता सिंगबोंगा बिरसा को दर्शन देते हैं और आशिर्वाद देते हुए कहते हैं कि तुम ही इन आदिवासियों के जननायक हो, अब आगे चलकर तुम ही इन आदिवासियों को शोषण से मुक्ति दिलाने का काम करोगे,इसके बाद बिरसा अपने गांव वापस लौट आते हैं। मगर अब वह पहले जैसे गुस्सैल और चंचल स्वभाव के नहीं थे,अब वह बिल्कुल बदल चुके थे। उनमें एक अलग सी शांति और गंभीरता आ चुकी थी। लोग उनकी बातों को बहुत ही ध्यानपूर्वक सुनते और समझते थे। कहा जाता है कि बिरसा के छूने मात्र से ही रोगियों के रोग ठीक हो जाते थे। वे जंगलों से जड़ी बूटी से स्वयं औषधि तैयार करते और कई लाइलाज बीमारियों को चुटकी में ठीक कर देते। पुरे इलाके में बिरसा अब धरती आबा के रुप में पहचाने जाने लगे। सभी जगहों से लोग अपनी बीमारियों का इलाज कराने बिरसा के कुटिया में आने लगे। धीरे धीरे एक बिरसा की ख्याति पूरे छोटानागपुर इलाके में फ़ैल गई अब जनसैलाब का उमड़ना शुरु हो चुका था। उमड़ते जनसैलाब को देखते हुए अब बिरसा ने प्रवचन देना शुरु किया। अपने प्रवचन के जरिये बिरसा आदिवासियों को अपने धर्म, संस्कृति, जल, जंगल, जमीन की रक्षा करने को कहते। उन्हें ईसाई धर्म त्यागने और बिरसाइयात धर्म अपनाने के लिये कहते। बिरसाइयात धर्म दरअसल, आदिवासियों के प्राचीन धर्म का ही एक नया रुप है। इस धर्म के तहत उन्हें किसी भी प्रकार के नशापान की अनुमति नहीं थी। बिरसा के अनुसार, नशापान उन्हें अंदर से खोखला कर रहा है, जिससे वे अंग्रेजों के गुलाम बनते हैं।
बिरसा की बढ़ती लोकप्रियता से भयभीत होकर अंग्रेजों ने एक साजिश रची। उन्हें डर था कि कहीं बिरसा और उनके समर्थक विद्रोह न छेड़ दें, इसलिये उन्होंने बिरसा को जमीनदार, ठेकेदार के मजदूरों को उकसाने, लोगों को ईसाई धर्म से बिरसाई धर्म में शामिल करने और अंग्रेज सरकार के शासन के खिलाफ जनता को भड़काने के आरोप में 2 सालों के लिए उनके पिता सहित 24 अगस्त 1895 को गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल में डाल दिया और उनपर 50 रुपये का जुर्माना लगा दिया। 50 रुपये का भुगतान न कर पाने पर उन्हें और 6 महीने जेल की सजा काटनी पड़ी। इसी दौरान उनके पिता सुगना मुंडा की मौत हो जाती है। इधर, बिरसा के जेल जाने के बाद अंग्रेजों, जमीनदारों का जुल्म और बढ जाता है। मगर बिरसा के छोड़े गये प्रभाव के कारण अब आदिवासियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करना मुश्किल था और तो और वे लड़ने लग जाया करते कि हम अपने धर्म, संस्कृति को छोड़कर कोई भी दूसरा धर्म नहीं अपनायेंगे। यह बिरसा के जेल में रहते हुए उनकी पहली जीत थी। आखिरकार, 18 जनवरी, 1898 को बिरसा जेल से रिहा हुए। गांव लौटने पर वह देखते हैं कि आदिवासी ईसाई धर्म को अस्वीकार कर देते और नशापान से भी मुक्त हो चुके हैं। जेल से रिहाई के बाद वह अपना काम और भी ज्यादा तेजी से करने लग जाते हैं। अब उनके आंदोलन में सरदार आंदोलन में भाग लेने वाले आंदोलनकारी भी शामिल होने लग जाते हैं। दरअसल, बिरसा मुंडा के आंदोलन से पहले सरदार आंदोलन छोटानागपुर क्षेत्र में हो चुका था। यह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक महत्वपूर्ण आंदोलन साबित होता है। सरदार आंदोलन के आंदोलनकारी गर्म स्वभाव के थे, जबकि बिरसा आंदोलन के समर्थक शांत स्वभाव के। इन गर्म स्वभाव वाले आंदोलनकारियों ने बिरसा के समक्ष प्रस्ताव रखा कि शांत रहने से केवल शोषण और यातनाएं ही झेलनी पड़ी हैं, अब समय क्रांति लाने का है। इतना बड़ा जनसैलाब कभी नहीं उमड़ा। अगर हर एक व्यक्ति हथियार उठा ले, तो अंग्रेज हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पायेंगे। उनकी बात से प्रभावित होकर बिरसा ने 1899 में पांगुड़ा पर्वत पर अपने समर्थकों के साथ एक विशाल बैठक आयोजित की। इस बैठक में कुल 7000 हजार लोग इकट्ठा होते हैं। जहां बिरसा पहली बार उल्गुलान का नारा देते हैं। बैठक के दौरान बिरसा लोगों के बीच घोषणा करते हैं कि आज के बाद कोई भी आदिवासी ढोल-मांदर नहीं बजायेगा, और न नाचेगा। कोई भी आदिवासी अपने बाल और दाढ़ी नहीं कटवायेगा। औरतें बालों मे कंघी और साज श्रृंगार नहीं करेंगी। बैठक में यह भी तय हुआ कि 24 दिसंबर 1899 की रात सभी अंग्रेज और जमीनदार एक साथ एक जगह पर क्रिशमस का जश्न मना रहे होंगे, तभी हम उनपर हमला करेंगे। बैठक की समाप्ति के दौरान बिरसा एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपदेश देते हैं कि “अबुआ राज एते जाना, महारानी राज टुंडू जाना”—यानि की महारानी का राज समाप्त हो, अब हमारा राज स्थापित होगा। इसी के साथ लोग उग्र होकर कई ब्रिटिश पुलिसकर्मियों की हत्या कर देते हैं। जमीनदारों, ठेकेदारों को चुनचुन कर मारना शुरु कर देते हैं। इसे देखते हुए जमीनदारों, सरकारी अधिकारियों के घरों की सुरक्षा बढ़ा दी गयी। अंग्रेजी सरकार ने बिरसा दलों को मारना शुरु कर दिया। दल के प्रमुखों की हत्या कर दी गयी। साथ ही दल में भेष बदलकर वे शामिल हो गये और उनकी रणनीति का पता लगाने लगे। उधर, अंग्रेजी कमांडरों ने बिरसा पर 500 रुपये के इनाम की घोषणा कर दी। जो कोई भी बिरसा मुंडा को जीवित या मृत अंग्रेजों को सौंपता, उन्हें 500 रुपये का इनाम दिया जाता।
इधर, बिरसा दलों के प्रमुखों की हत्या से चिंतित होकर बिरसा एक आपातकालीन बैठक बुलाते हैं। बैठक में रणनीति बनायी जाती है कि किस प्रकार हमारे लोगों को बचाया जा सकता है, मगर इसी बीच चारों ओर से गोलीबारी शुरु हो जाता है। अंग्रेजी अफसर उस पूरे क्षेत्र को चारों ओर से घेर लेते हैं। अब आदिवासियों के पास हथियार के तौर पर केवल तीर धनुष ही थे जिससे वे अंग्रेजों के हथियारों का सामना करने में विफल हो जाते। मगर लाख कोशिशों के बावजूद हजारों आदिवासियों की जान चली गयी। इसी बीच कुछ लोगों ने बिरसा को छिपाकर उन्हें दूसरे गांव ले गये। मगर 3 फरवरी 1900 को जिस गांव में बिरसा को छिपाया जाता है, उस गांव के लोगों ने 500 रुपये के लालच में बिरसा को अंग्रेजों के हवाले सौंप दिया। अंग्रेज बिरसा को यातनायें देकर रांची जेल में कैद कर लेते हैं। जेल में हैजा बीमारी के कारण 9 जून साल 1900 में उनकी मृत्यु हो जाती है। हालांकि, कुछ लोगों का कहना है कि जेल में बिरसा को जहर देकर मारा गया था। बिरसा की मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शरीर को अंग्रेजों ने आम लोगों को सौंपने के बजाय नदी किनारे जला दिया। इसी के साथ बिरसा मुंडा ने जल, जंगल, जमीन, धर्म, संस्कृति की रक्षा और अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने के लिए मात्र 25 साल की उम्र में अपना बलिदान दे दिया।
9 जून 1900 को भगवान बिरसा मुंडा की मौत के साथ ही एक युग का अंत हो गया,वही युग जिसको मात्र 25 साल के एक नवयुवक ने शुरू किया था। आज भगवान बिरसा मुंडा भले जीवित नही हैं, परन्तु उनका विचारधरा आज,कल और भविष्य में भी हमेशा हमेशा के लिए जिन्दा रहेगा। आज शहादत दिवस के अवसर पर भगवान बिरसा मुंडा को कोटि कोटि नमन करते हुये श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।