L19/DESK : आदिवासी समाज के रीढ़ और प्रख्यात मानवशास्त्री,महान शिक्षाविद और रांची विश्वविद्यालय सामाजिक विज्ञान के पूर्व डीन, एकीकृत बिहार के पूर्व बीपीएससी सदस्य,आदिवासी समाज के प्रेरणास्रोत और शुभचिंतक प्रोफ़ेसर डॉ. करमा उरांव का आज सुबह सात बजे के आसपास मेदांता हॉस्पिटल में लगभग 72 वर्ष की आयु में निधन हो गया। डॉ. करमा उरांव काफ़ी दिनों से अस्वस्थ थे और किडनी की समस्या से जूझ रहे थे और बीते एक महीने से मेदंता हॉस्पिटल के ICU में एडमिट थे। डॉ. करमा उरांव अपने पीछे भरापूरा परिवार को छोड़कर हमेशा हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह गए। डॉ. उरांव अपने पीछे पत्नी, एक बेटी पिंकी उरांव जो अभी आयरलैंड में नौकरी करती हैं ,एक बेटा सनी उरांव जो जमशेदपुर में रिलांईस कंपनी में पोस्टेड हैं और एक धर्मेश उरांव जिसका निधन 2021 में कोरोना में हो गया था जिसकी विधवा पत्नी मुंबई में रहती है के साथ नाती पोती को छोड़कर चले गए। डॉ.करमा उरांव आदिवासी समाज के लिए आदर्श थे,उन्होंने सरना धर्म और आदिवासी समाज के उत्थान और आदिवासियों की अन्धाधुन जमीन लुट पर चिंतित रहते थे। जब भी समाज को डॉ. करमा उरांव की जरुरत पड़ी डॉ. उरांव तुरंत समाज के लिए हाजिर रहते थे। आज उनकी निधन की खबर सुनकर पूरा आदिवासी समाज और झारखण्ड स्तब्ध और गमहीन हैं।
डॉ. प्रोफ़ेसर उरांव का जीवन परिचय
पेशे से प्रोफ़ेसर डॉ. करमा उरांव का जन्म गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड अंतर्गत लोंगा महुआ टोली गांव में सन 1951 ई. को हुआ था। गरीब किसान परिवार में जन्मे डॉ. करमा उरांव बचपन से ही मेधावी छात्र रह हैं और विभिन्न परिस्थितियों का सामना करते हुए रांची विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और डीन पद तक पहुचे। बचपन में प्रारंभिक स्कूलिंग बिशुनपुर से पूरी करने के बाद आगे की पढाई रांची कॉलेज रांची (वर्तमान में डॉ.स्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय रांची) से स्नातक की डिग्री समाजशास्त्र बिषय में पूरी की। पीजी की डिग्री रांची विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग से पूरी करने के बाद university के समाजशास्त्र विभाग के प्रोफ़ेसर और एचओडी के पद पर अपनी सेवा दी साथ ही सामाजिक बिज्ञान संकाय के university डीन भी रहे हैं। एक इंटरव्यू के दौरान डॉ करमा उरांव ने बताया था कि वह विश्व के 40 से ज्यादा देशों में 60,65 बार विदेश यात्रा की है और आदिवासी समाज की परम्परा,संस्कृति, रीती-रिवाज,भेषभूषा का प्रतिनिधित्व करके समाज को देश से बाहर दिखाने और समझाने का काम किया है।
डॉ. उरांव का सामाजिक कार्यो में रही है अग्रिणी भूमिका
डॉ. करमा उरांव शुरू से ही आदिवासी मूलवासी की एकता के पक्षधर रहे हैं। बिशेषकर आदिवासी समाज में जल जंगल जमीन की रक्षा और यहाँ की रीति-रिवाज़,परंपरा,संस्कृति के प्रति लोगों को जगाने का काम किया करते थे। सरना धरम कोड की मांग और सीएनटी,एसपीटी एक्ट में छेड़छाड़ के विरुद्ध हमेशा से अपनी आवाज़ को मुखर होकर उठाते रहे हैं और इन नीतियों को छेड़ने वाली सरकार की निंदा भी करते थे। साथ ही आदिवासियों के जमीन की लुट और गलत तरीके से खरीद बिक्री को रोकने के लिए हमेशा चिंतित रहते थे और लोगों से आग्रह करते थे कि अपने पूर्वजों की सम्पति को बचाकर रखने की सलाह देते थे। डॉ.उरांव का मानना था कि जमीन रहेंगी तो आदिवासी की पहचान रहेंगी क्यूंकि जमीन ही झारखण्ड के आदिवासियों की पहचान है।जब हेमंत सरकार ने 2021 के दिसंबर में यहाँ की नौकरियों में बाहरी भाषा को शामिल किया गया था, तब भी डॉ करमा उरांव ने प्रखर होकर सरकार के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद की थी और सरकार की जमकर आलोचना भी की थी। 1932 खतियान आधारित नियोजन नीति के समर्थन में भी हमेशा से ही अपनी बातों को लोगों तक पहुचाते रहते थे। डॉ. करमा उरांव ने अनेक पुस्तकों की रचना कर झारखण्ड की अस्मिता और संस्कृति को समाज के सामने दिखाने का काम भी किया है।
डॉ. करमा उरांव भले आज हमारे बीच नही हैं लेकिन उनके विचार हमेशा झारखण्ड और झारखण्ड के आदिवासियों के बीच रहेंगी। आज की युवा पीढ़ी को डॉ. उरांव के आदर्श और विचारों को ग्रहण करने की जरुरत है ताकि अपने समाज और पीढ़ी की रक्षा में अपना योगदान दे पायें। आज डॉ उरांव के निधन से पूरा आदिवासी समाज दुखी हैं और एक बुद्धिजीवी को अपने बीच से खोने का गम है,क्यूंकि जब भी समाज को किसी बुद्धिजीवी की जरुरत होंगी डॉ. उरांव हमेशा लोगों को खलेंगी। जब जब 19वीं शताब्दी के महान व्यक्तियों को याद किया जाएगा उनमे से एक डॉ. करमा उरांव भी लोगों को हमेशा याद आएंगे।
डॉ. करमा उरांव के निधन पर पूरे झारखण्ड और आदिवासी समाज की ओर से शत शत नमन और श्रद्धांजलि।
गोविन्द टोप्पो
लोकतंत्र 19