L19 DESK : “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” का नारा देने वाले और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांशी राम की आज 9 अक्टूबर को पुण्यतिथि है। इसे लेकर बसपा के साथ साथ सपा ने भी इस दिवस को मनाने का फैसला किया है। कांशीराम को लोग मान्यवर कह कर सम्मानित करते हैं। मान्यवर ने उत्तर भारत में पहली बार दलितों को सत्ता के शिखर तक पहुंचाया। दलित समाज को एकजुट करके पूरी हिंदी पट्टी का राजनीतिक गठजोड़ बदल दिया। तो आइये, उनसे संबंधित कुछ दिलचस्प किस्से जानते हैं।
कांशी राम से कैसे बने मान्यवर?
कांशीराम का जन्म 15 मार्च 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर गांव में हुआ था। वह चमार जाति के थे। परिवार ने उनके जन्म के बाद धर्म परिवर्तन कर लिया। उन्होंने रविदासिया सिख अपना लिया था। अपनी जवानी के समय में कांशीराम ने सरकारी नौकरी छोड़कर राजनीति शुरू की थी। दरअसल, साल 1958 में कांशीराम पुणे में डीआरडीओ में लैब असिस्टेंट के पद पर कार्यरत थे, लेकिन नौकरी के दौरान एक ऐसी घटना हुई कि वो दलित राजनीति की ओर मुड़ गए।
उनके प्रशंसकों का कहना है कि उन्होंने बाबासाहेब डॉ भीमराव अंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” को पढ़ने और एक दलित कर्मचारी के खिलाफ भेदभाव को देखने के बाद राजनीति की तरफ रुख किया। उस कर्मचारी ने अंबेडकर के जन्म के उपलक्ष्य में छुट्टी मनाने की इच्छा जतायी थी। जिसे कंपनी ने ठुकरा दिया था। इसके बाद दलित कर्मचारी ने संगठित होकर इसके लिये आवाज उठायी, तब जाकर इस दिवस पर छुट्टी दिये जाने का फैसला किया गया।
कांशीराम बाबासाहेब और उनके दर्शन से काफी प्रेरित थे। राम ने शुरू में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) का समर्थन किया लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ उसके सहयोग से उनका मोहभंग हो गया। 1971 में उन्होंने अखिल भारतीय एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक कर्मचारी संघ की स्थापना की और 1978 में यह बामसेफ बन गया। एक संगठन जिसका उद्देश्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों के शिक्षित सदस्यों को अंबेडकरवादी सिद्धांतों का समर्थन करने के लिए प्रेरित करना था।
बामसेफ न तो कोई राजनीतिक और न ही धार्मिक संस्था थी। इसका अपने उद्देश्य के लिए आंदोलन करने का भी कोई उद्देश्य नहीं था। इसने “दलितों के उस वर्ग को आकर्षित किया, जो तुलनात्मक रूप से संपन्न था, ज्यादातर शहरी क्षेत्रों और छोटे शहरों में सरकारी कर्मचारियों के रूप में काम करता था और आंशिक रूप से अपनी अछूत पहचान से अलग था”। बाद में, साल 1981 में, कांशीराम ने एक और सामाजिक संगठन बनाया, जिसे दलित शोषित समाज संघर्ष समिति डीएस4 के नाम से जाना जाता है।
उन्होंने दलित वोट को एकजुट करने का प्रयास शुरू किया और 1984 में उन्होंने बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की स्थापना की। उन्होंने अपना पहला चुनाव 1984 में छत्तीसगढ़ की जांजगीर-चांपा सीट से लड़ा। बसपा को उत्तर प्रदेश में सफलता मिली, शुरू में उसने दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के बीच विभाजन को पाटने के लिए संघर्ष किया। लेकिन बाद में मायावती के नेतृत्व में इस अंतर को पाट दिया गया। बसपा के गठन के बाद राम ने कहा कि पार्टी पहला चुनाव हारने के लिए, अगला चुनाव लोगों के ध्यान में आने के लिए और तीसरा चुनाव जीतने के लिए लड़ेगी। 1988 में उन्होंने भविष्य के प्रधानमंत्री वीपी सिंह के खिलाफ इलाहाबाद सीट से चुनाव लड़ा और प्रभावशाली प्रदर्शन किया, लेकिन लगभग 70,000 वोटों से हार गए।
उन्होंने 1989 में पूर्वी दिल्ली और अमेठी से असफल रूप से चुनाव लड़ा और दोनों सीटों पर तीसरे स्थान पर रहे। फिर उन्होंने होशियारपुर से 11वीं लोकसभा (1996-1998) का प्रतिनिधित्व किया। कांशीराम उत्तर प्रदेश के इटावा से लोकसभा सदस्य के रूप में भी चुने गए। 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, मुलायम सिंह यादव और कांशीराम ने पिछड़ी और दलित जातियों के बीच एकता बनाकर सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से बाहर रखने के लिए हाथ मिलाया और लोकप्रिय नारा दिया “मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए “जय श्री राम।”
चुनाव के बाद यूपी में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की गठबंधन सरकार बनी, हालांकि, कुछ मतभेदों के कारण जून 1995 में यह गठबंधन टूट गया और मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनीं।
कैसे हुई थी कांशीराम और मायावती की मुलाकात?
साल 1977 की बात है। मायावती उस वक्त 21 साल की थीं और दिल्ली के एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती थीं। कांशीराम ने दिल्ली के एक कार्यक्रम में मायावती को जोरदार भाषण देते सुना। मायावती के भाषण को सुनकर कांशीराम काफी प्रभावित हुए और उनके पिता से मायावती को राजनीति में भेजने की गुजारिश की, लेकिन जब पिता ने बात को टाल दिया तो मायावती ने अपना घर छोड़ दिया और वो पार्टी ऑफिस में रहने लगीं।3 जून 1995 को मायावती उत्तर प्रदेश की सबसे युवा और दलित महिला मुख्यमंत्री बनीं। 2001 में कांशीराम ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
जब बसपा ने चुनाव लड़ना शुरू कर दिया तो उन्होंने ‘एक नोट, एक वोट‘ नारा देकर नोट और वोट खींचे। धीरे-धीरे उनकी लोकप्रियता बढ़ी और समर्थक उन्हें सिक्कों में तौलने लगे। इस पैसे का इस्तेमाल उन्होंने चुनाव लड़ने के लिए किया। उन्होंने खुद तो कभी राजनीति नहीं की, लेकिन उन्होंने हजारों लोगों को राजनीति में आने का मौका दिया। उनकी नीतियों को कई लोग बेहद महान मानते हैं। बाबा भीमराव अंबेडकर के बाद उन्होंने ही देश के दलितों को सही मायनों में एक करने का सपना सच कर दिखाया। सोशल इंजीनियरिंग का उन्होंने जो फंडा दिया उसका इस्तेमाल करके ही बीएसपी ने पिछले कई सालों तक यूपी में राज किया। उनकी कार्यशैली की वजह से ही एक समय बीएसपी और सपा में गठबंधन हो पाया था।
कांशीराम की प्रसिद्ध किताब, ‘द चमचा एज’
साल 1982 में कांशी राम ने ‘द चमचा एज’ (चमचा युग) नामक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने दलित नेताओं के लिए चमचा शब्द का इस्तेमाल किया, जिन पर उन्होंने आरोप लगाया कि उनके पास कांग्रेस जैसी पार्टियों के लिए काम करने के स्वार्थी कारण थे। जिसमें उन्होंने जगजीवन राम और राम विलास पासवान जैसे दलित नेताओं का वर्णन करने के लिए चमचा शब्द का इस्तेमाल किया। उन्होंने तर्क दिया कि दलितों को अन्य दलों के साथ काम करके समझौता करने के बजाय अपने हितों के लिए राजनीतिक रूप से काम करना चाहिए।