L19 DESK : धरती आबा के रूप में अपनी पहचान स्थापित करने वाले भगवान बिरसा मुंडा ने देश में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ युद्ध छेड़ा था। इस दौरान उन्होंने कई पहलुओं पर काम किया, यूं ही नहीं उन्हें भगवान का दर्जा प्राप्त हुआ। आज के ही दिन साल 1900 में उन्होंने देश के नाम खुद को कुर्बान कर दिया। आज उनके शहादत दिवस के अवसर पर हम भगवान बिरसा मुंडा के कुछ अनछुए पहलुओं और उनकी क्रांति की गाथा को आपके सामने प्रस्तुत करेंगे।
बिरसा मुंडा का जन्म के खूंटी के उलीहातू गांव के एक छोटे से गरीब किसान के घर 15 नवंबर 1875 को हुआ। इनके पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी मुंडा था। मुंडा रीतिरिवाज के अनुसार, जन्म बृहस्पतिवार को होने के कारण इनका नाम बिरसा पड़ा। बिरसा का परिवार बहुत गरीब था। इसी गरीबी के कारण रोजगार की तलाश में वे लोग सपरिवार बिरसा के चाचा के यहां कुरुम्बड़ा गांव में रहने चले गए। पिता को एक जमीनदार के यहां नौकरी मिल जाती है।
बिरसा को बचपन में भेड़ बकरी चराने का काम दिया जाता है। मगर बिरसा बचपन से ही बहुत नटखट थे। जब उन्हें भेड़ बकरी चराने के लिये कहा जाता था, तो वे उन्हें छोड़कर पेड़ की टहनी में बैठकर बांसुरी बजाने लग जाते। इन सब से परेशान होकर मां पिता ने बिरसा को उनके मामा के गांव अयुभातु भेज दिया। यह गांव सलगा के पास था जहां से बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा पूरी हुई। बिरसा पढ़ाई में बहुत होशियार थे। पढ़ाई में रुचि को देखते हुए उनके शिक्षक जयपाल नाग ने उन्हें आगे पढ़ने की हिदायत दी। वह उन्हें आगे की पढ़ाई के लिये चाईबासा के ईसाई मिश्नरी स्कूल से शिक्षा ग्रहण करने की सलाह देते हैं। 2 साल की पढ़ाई के बाद वह वापस अपने गांव लौट जाते हैं।
उस दौरान अंग्रेज रेलवे का निर्माण कर रहे थे। इसके लिए वे जंगलों की भारी मात्रा में कटाई कर रहे थे और आदिवासियों के घर उजाड़ रहे थे। इसमें ब्रिटिश सरकार, जमीनदार, ठेकेदार, बड़े व्यवसायी सभी शामिल थे। आदिवासियों को अपनी खेती करने के लिये भी जमीनदारों को टैक्स और भूमिगत उपज का हिस्सा देना पड़ता था। आदिवासी जनता अंग्रेजी हुकूमत, जमीनदार, जागीरदार, सेठ साहूकार और व्यवसायी के शोषण का हर दिन शिकार होती। यही नहीं, आदिवासी महिलाओं का बलात्कार होने पर भी उनका केस सरकार के पास नहीं जाता था। शादी, समारोह, जन्म, मृत्यु भोज करने के बदले में भी इन्हें सरकार को टैक्स भरना पड़ता।
इसी परिवेश में बिरसा भी बड़े हो रहे थे। उन्होंने आगे की पढ़ाई करने के लिये चाईबासा के अंग्रेजी माध्यमिक स्कूल में दाखिला ले लिया। इस स्कूल में बिरसा के दाखिला लेने का मकसद केवल अंग्रेजों की नीतियों को जानना था। उन्हें पता लगाना था कि आखिर अंग्रेज ऐसी कौन सी नीति अपनाकर कम तादाद में होने के बावजूद लोगों को गुलाम बना लेते हैं। और कैसे इन अंग्रेजों को यहां से खदेड़ा जा सकता है। अब ईसाई मिश्नरी स्कूलों में दाखिला लेने के लिये धर्म परिवर्तन करना अनिवार्य था। इसलिये बिरसा को भी धर्म परिवर्तन करना पड़ा जिसके वजह से उनका नाम बिरसा से दाऊद हो गया। हालांकि, शिक्षक जयपाल नाग के सिखाये गये रास्ते पर चलकर बिरसा अपनी संस्कृति न त्यागकर ईसाई स्कूलों में भी बस्ते में धार्मिक ग्रंथों को ले जाया करते थे।
स्कूल में दाखिला लेने के बाद बिरसा ने देखा कि इन स्कूलों में छात्रों को अपने धर्म और संस्कृति के खिलाफ भड़काया जाता है। कहा जाता था कि आदिवासी समाज के लोग धोखेबाज और गुलाम प्रवृत्ति के होते हैं। इसलिये ईसाई धर्म को अपना कर राजा बना जा सकता है। यह सिलसिला 4 सालों तक चला जब बिरसा इन सभी चीज़ों को बर्दाश्त कर रहे थे। 4 साल बीतने के बाद जब इन्हें यकीन हो गया कि ज्ञान अर्जन का काम पूरा हो गया है, तब उनकी सहनशक्ति भी खत्म हो गयी। इसी बीच वह एक दिन स्कूल के एक शिक्षक के साथ भिड़ जाते हैं, और कहते हैं कि हमारी आदिवासी संस्कृति बुरी और असभ्य नहीं है, बुरे तो तुमलोग हो जो हमारे जमीन, समाज और राष्ट्र पर कब्जा करने आये हो।
इसके साथ ही वह ईसाई स्कूल छोड़कर वापस अपने गांव को लौट जाते हैं। उस दौरान पूरे देशभर में अकाल की स्थिति थी। अकाल का दौर उस समय इस कदर था कि हर दिन कोई न कोई आदिवासी भूख से दम तोड़ रहा था। मगर दूसरी ओर यही आदिवासी अंधविश्वास से ग्रसित थे। इस अंधविश्वास के काऱण वे औरतों की मृत्यु के बाद उसके सारे गहने जेवरात मृत शरीर के साथ ज़मीन में दफन कर देते थे। यह देखकर बिरसा ने एक दिन आधी रात को जाकर उन जेवरात को निकालकर साहूकार को बेच देते हैं औऱ उसके बदले अनाज घर ले जाते हैं। इन सब के बारे में मां को पता चलते ही वह बहुत क्रोधित हो गयीं और उसी समय बिरसा को घर से बाहर निकाल दिया। इस बात से दुखी होकर बिरसा कई दिनों तक गायब हो जाते हैं। और जंगलों में जाकर ध्यान और तपस्या करना शुरु कर देते हैं। मान्यता के अनुसार, आदिवासियों के सबसे बड़े देवता सिंगबोंगा एक दिन उन्हें दर्शन देते हैं और आशिर्वाद देते हुए कहते हैं कि तुम ही इन आदिवासियों के जननायक हो, अब आगे चलकर तुम ही इन आदिवासियों को शोषण से मुक्ति दिलाने का काम करोगे।
इसके बाद बिरसा अपने गांव वापस लौट आते हैं। मगर अब वह पहले जैसे गुस्सैल और चंचल स्वभाव के नहीं थे। वह बिल्कुल बदल चुके थे। उनमें एक अलग सी शांति और गंभीरता आ चुकी थी। लोग उनकी बातों को बहुत ही ध्यानपूर्वक सुनते। कहा जाता है कि बिरसा के छूने मात्र से ही रोगियों के रोग ठीक हो जाते थे। वे जंगलों से जड़ी बूटी से स्वयं औषधि तैयार करते और कई लाइलाज बीमारियों को चुटकी में ठीक कर देते। अब वह धरती आबा के रुप में पहचाने जाने लगे। पूरे छोटानागपुर में वह प्रचलित हो गये थे। सभी जगहों से लोग अपनी बीमारियों का इलाज कराने आते। इन सब के जरिये एक जनसैलाब उमड़ना शुरु हो चुका था। उमड़ते जनसैलाब को देखते हुए बिरसा ने प्रवचन देना शुरु किया। अपने प्रवचन के जरिये बिरसा आदिवासियों को अपने धर्म, संस्कृति, जल, जंगल, जमीन की रक्षा करने को कहते। उन्हें ईसाई धर्म त्यागने और बिरसाई धर्म अपनाने के लिये कहते। बिरसाई धर्म दरअसल, आदिवासियों के प्राचीन धर्म का ही नया रुप है। इस धर्म के तहत उन्हें किसी भी प्रकार के नशापान की अनुमति नहीं थी। बिरसा के अनुसार, नशापान उन्हें अंदर से खोखला कर रहा है जिससे वे अंग्रेजों के गुलाम बनते हैं।
बिरसा की बढ़ती लोकप्रियता से भयभीत होकर अंग्रेजों ने एक साजिश रची। उन्हें डर था कि कहीं बिरसा और उनके समर्थक विद्रोह न छेड़ दें, इसलिये उन्होंने बिरसा को जमीनदार, ठेकेदार के मजदूरों को उकसाने, लोगों को ईसाई धर्म से बिरसाई धर्म में शामिल करने और अंग्रेज सरकार के शासन के खिलाफ जनता को भड़काने के आरोप में 2 सालों के लिए उनके पिता सहित 24 अगस्त 1895 को गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल में डाल दिया और उनपर 50 रुपये का जुर्माना लगा दिया। 50 रुपये का भुगतान न कर पाने पर उन्हें और 6 महीने जेल की सजा काटनी पड़ी। इसी दौरान उनके पिता सुगना मुंडा की मौत हो जाती है।
इधर, बिरसा के जेल जाने के बाद अंग्रेजों, जमीनदारों का जुल्म और बढ़ जाता है। मगर बिरसा के छोड़े गये प्रभाव के कारण अब आदिवासियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करना मुश्किल था। और तो और वे लड़ने लग जाया करते कि हम अपने धर्म, संस्कृति को छोड़कर कोई भी दूसरा धर्म नहीं अपनायेंगे। यह बिरसा के जेल में रहते हुए उनकी पहली जीत थी। आखिरकार, 18 जनवरी, 1898 को बिरसा जेल से रिहा हुए। गांव लौटने पर वह देखते हैं कि आदिवासी ईसाई धर्म को अस्वीकार कर देते और नशापान से भी मुक्त हो चुके हैं। जेल से रिहाई के बाद वह अपना काम और भी ज्यादा तेजी से करने लग जाते हैं।
अब उनके आंदोलन में सरदार आंदोलन में भाग लेने वाले आंदोलनकारी भी शामिल होने लग जाते हैं। दरअसल, बिरसा मुंडा के आंदोलन से पहले सरदार आंदोलन छोटानागपुर क्षेत्र में हो चुका था। यह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक महत्वपूर्ण आंदोलन साबित होता है। सरदार आंदोलन के आंदोलनकारी गर्म स्वभाव के थे, जबकि बिरसा आंदोलन के समर्थक शांत स्वभाव के। इन गर्म स्वभाव वाले आंदोलनकारियों ने बिरसा के समक्ष प्रस्ताव रखा कि शांत रहने से केवल शोषण और यातनाएं ही झेलनी पड़ी हैं, अब समय क्रांति लाने का है। इतना बड़ा जनसैलाब कभी नहीं उमड़ा। अगर हर एक व्यक्ति हथियार उठा ले, तो अंग्रेज हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पायेंगे।
उनकी बात से प्रभावित होकर बिरसा ने 1899 में पांगुड़ा पर्वत पर अपने समर्थकों के साथ एक विशाल बैठक आयोजित की। इस बैठक में कुल 7000 हजार लोग इकट्ठा होते हैं। जहां बिरसा पहली बार उल्गुलान का नारा देते हैं। बैठक के दौरान बिरसा लोगों के बीच घोषणा करते हैं कि आज के बाद कोई भी आदिवासी ढोल-मांदर नहीं बजायेगा, और न नाचेगा। कोई भी आदिवासी अपने बाल और दाढ़ी नहीं कटवायेगा। औरतें बालों मे कंघी और साज श्रृंगार नहीं करेंगी। बैठक में यह भी तय हुआ कि 24 दिसंबर 1899 की रात सभी अंग्रेज और जमीनदार एक साथ एक जगह पर क्रिशमस का जश्न मना रहे होंगे। तभी हम उनपर हमला करेंगे। बैठक की समाप्ति के दौरान बिरसा एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपदेश देते हैं कि अबुआ राज एते जाना, महारानी राज टुंडू जाना—यानि कि महारानी का राज समाप्त हो, अब हमारा राज स्थापित होगा।
इसी के साथ लोग उग्र होकर कई ब्रिटिश पुलिसकर्मियों की हत्या कर देते हैं। जमीनदारों, ठेकेदारों को चुनचुन कर मारना शुरु कर देते हैं। इसे देखते हुए जमीनदारों, सरकारी अधिकारियों के घरों की सुरक्षा बढ़ा दी गयी। अंग्रेजी सरकार ने बिरसा दलों को मारना शुरु कर दिया। दल के प्रमुखों की हत्या कर दी गयी। साथ ही दल में भेष बदलकर वे शामिल हो गये और उनकी रणनीति का पता लगाने लगे। उधर, अंग्रेजी कमांडरों ने बिरसा पर 500 रुपये के इनाम की घोषणा कर दी। जो कोई भी बिरसा मुंडा को जीवित या मृत अंग्रेजों को सौंपता, उन्हें 500 रुपये का इनाम दिया जाता।
इधर, बिरसा दलों के प्रमुखों की हत्या से चिंतित होकर बिरसा एक आपातकालीन बैठक बुलाते हैं। बैठक में रणनीति बनायी जाती है कि किस प्रकार हमारे लोगों को बचाया जा सकता है, मगर इसी बीच चारों ओर से गोलीबारी शुरु हो जाता है। अंग्रेजी अफसर उस पूरे क्षेत्र को चारों ओर से घेर लेते हैं। अब आदिवासियों के पास हथियार के तौर पर केवल तीर धनुष ही थे जिससे वे अंग्रेजों के हथियारों का सामना करने में विफल हो जाते। मगर लाख कोशिशों के बावजूद हजारों आदिवासियों की जान चली गयी। इसी बीच कुछ लोगों ने बिरसा को छिपाकर उन्हें दूसरे गांव ले गये।
मगर 3 फरवरी 1900 को जिस गांव में बिरसा को छिपाया जाता है, उस गांव के लोगों ने 500 रुपये के लालच में बिरसा को अंग्रेजों के हवाले सौंप दिया। अंग्रेज बिरसा को यातनायें देकर रांची जेल में कैद कर लेते हैं। जेल में हैजा बीमारी के कारण 9 जून साल 1900 में उनकी मृत्यु हो जाती है। हालांकि, कुछ लोगों का कहना है कि जेल में बिरसा को जहर देकर मारा गया था। बिरसा की मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शरीर को अंग्रेजों ने आम लोगों को सौंपने के बजाय नदी किनारे जला दिया। इसी के साथ बिरसा मुंडा ने जल, जंगल, जमीन, धर्म, संस्कृति की रक्षा और अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने के लिए मात्र 25 साल की उम्र में अपना बलिदान दे दिया।