l19/DESK : भारतीय समाज में प्रारंभ से ही धर्म, राजनीति, संपत्ति जैसे सभी अधिकारों पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है,जहां स्त्री के अधिकार सीमित और ना के बराबर रहे हैं। वहीं इसके विपरीत अगर हम आदिवासी समाज की बात करें तो यहाँ स्त्रियों की स्थिति और उनका अलग जीवन दर्शन, शैली एक सुंदर समाज का विकल्प देखने का अवसर देती है़,जहां स्त्रियों को भी पुरुषों की भांति हर तरह के छूट मिले हैं । बता दें आदिवासी समाज में स्त्री-पुुरुष में भेदभाव नहीं है,पुरुष भी घर के काम में हाथ बंटाते हैं, खेती के समय पुरुष हल चलाते हैं, तो महिलाएं रोपनी, निकाई करती हैं,दोनों मिल कर फसल को काटते हैं।
वहीँ आपने जरुए सुना होगा आदिवासियों में दहेज प्रथा नहीं होती है साथ ही साथ जानकारी के लिए बता दें वधू की तलाश में लड़का पक्ष वाले ही अगुवे के साथ लड़की के घर जाते हैं.जिस वजह से शायद ही कभी आदिवासी समाज की महिलाओं में दहेज़ प्रताड़ना वाली बात सामने बहुत कम देखने और सुनने को मिलती है, और आखिर आएगा भी कैसे क्योंकि यहाँ तो दहेज़ लेने देने वाला ऐसा कुछ रिवाज ही नहीं हैं..वहीँ जहाँ झारखंड राज्य की बात करें एक तस्वीर जहां बेटियों के साथ मारपीट बलात्कार, कत्ल, जुल्म, की घटनाएं सुनने ,देखने और पढ़ने को मिल रही हैं वहीं दूसरी तस्वीर आदिवासी बेटियों से जुड़ी सुखद समाचार भी है जो एक तरह से झारखंड राज्य के लिए गर्व की बात है।
दरअसल,जमशेदपुर से 25 किलोमीटर दूर झारखण्ड का तिरिंग गाँव अपनी बेटियों के नाम से जाना जाता है बता दें इस आदिवासी बहुल गाँव के हर घर की नेमप्लेट बेटियों के नाम पर लगी है और जहां आदिवासीयों के करीब 161 घर हैं। इस आदिवासी गांव में जब आप किसी व्यक्ति का पता पूछते हैं तो लोग परिवार की बेटी का नाम बताते हुए घर दिखाते हैं। वहीँ पूर्वी सिंहभूम जिले के पोटका प्रखंड के इस पुरे गाँव को टैग लाइन ही ‘मेरी बेटी ,मेरी पहचान” से है।
जानकारी के लिए बता दें 8 साल पहले 2016 में आदिवासी बहुल गाँव तिरिंग में मेरी बेटी मेरी पहचान अभियान चला ताकि बेटियों के प्रति लोगों की सोच बदले ,बता दे 2016 में जब घरों पर बेटियों के नाम की नेमप्लेट लगाने का अभियान शुरू हुआ था, तब इस गाँव में 58 लड़के और 43 लड़कियां थीं ,लेकिन अब लिंगानुपात पूरी तरह से बदल गया है। अब यहाँ 107 लड़कों के मुकाबले 116 लड़कियां जिनमें 1 से 20 साल तक की हो गई हैं, और अगर आसपास के दुसरे गांवों की बात करें तो उन गांवों में महिलाओं के मुकाबले पुरुषों की संख्या जाएदा है जबकि तिरिंग में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की ही संख्या अधिक है।
2011 की जनगणना की बात करें तो तिरिंग गाँव में पहले बहुत कम लड़कियाँ हुआ करती थीं,इसलिए इस गाँव को मेरी बेटी मेरी पहचान अभियान के लिए चुना गया,वहीँ यहाँ बेटियों के नाम से नेमप्लेट लगाने की शुरुआत जमशेदपुर के तत्कालीन दीपटी कलेक्टर संजय पाण्डेय ने की थी।वहीँ इस गाँव की आंगनवाड़ी सहायिका सुलोचना सरदार बताती हैं की 2016 से पहले यहाँ 2 से 20 वर्ष की 70 % लड़कियां ही स्कूल जाती थीं लेकिन अब यहाँ सभी लड़कियां स्कूल जाती हैं अब गाँव में लड़कियों को पढ़ाने की एक होड़ से मच गई है,इसका सीधा असर यह है की कोई भी युवा यहाँ अशिक्षित नहीं है. गाँव के मुखिया सुखलाल सरदार बताते हैं की 8 साल में गाँव में एक भी भ्रूण हत्यांए नहीं हुई हैं और न ही किसी भी शादी में दहेज़ लिया या दिया गया है।