L19 DESK : हमारा मूल मकसद ऐसे अलग झारखंड राज्य का गठन करना है जिसमें वास्तव में समानता हो। लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी हो सके। हम झारखंडवासी दुनियाभर में एक सकारात्मक योगदान दे सकें। हमारे क्षेत्र में विकास के सभी संसाधन मौजूद हैं। जरूरत है सिर्फ ईमानदार कोशिश की।
ये बातें झारखंड एक अलग राज्य की मांग रखने के दौरान बिनोद बिहारी महतो ने कही थी। झारखंड अगर आज एक अलग राज्य बनकर सामने आया है, तो इसका श्रेय कई लोगों के संघर्ष और बलिदान को जाता है। इसी में एक मुख्य नाम बिनोद बाबू का भी है। आज इस महान शख्सियत की पुण्यतिथि है। इसी अवसर पर लोकतंत्र 19 के खास पेशकश में आज हम बिनोद बाबू का झारखंडियों और समाज के लिये योगदान की चर्चा करेंगे।
जब एक वाकये ने बिनोद बाबू को किरानी से वकील बना दिया
बिनोद बिहारी महतो का जन्म बलियापुर के बड़ादाहा गांव में पिता किसान माहिंदी महतो व माता मंदाकिनी के घर 23 सितंबर 1923 को हुआ था। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण वह मैट्रिक तक की ही पढ़ाई कर पाये। इसके साथ ही, दैनिक मजदूर के तौर पर उन्होंने धनबाद कोर्ट में काम शुरु किया। इसके बाद वह कलेक्टरेट के आपूर्ति विभाग में किरानी की नौकरी करने लगे।
इसी बीच एक ऐसा वाकया हुआ, जिसने उनकी जिंदगी बदल कर रख दी। कौन जानता था कि ये शख्स आगे चलकर तत्कालीन बिहार के इतिहास को नया मोड़ देगा। एक वकील ने बिनोद बाबू से कह दिया कि तुम कितना भी होशियार क्यों न बनो, रहोगे किरानी ही। इसलिये संभल कर बात करो। और ये बात बिनोद बाबू को इस कदर चुभी कि उन्होंने उसी वक्त वकील बनने की ठान ली। नौकरी करते हुए भी उन्होंने आगे की पढ़ाई शुरु कर दी। पहले इंटर, फिर ग्रेजुएशन की डिग्री लेने के बाद उन्होंने पटना लॉ कॉलेज से वकालत की डिग्री हासिल की।
अब कहते हैं न, जहां चाह वहां राह, इसका सटीक उदाहरण हमारे बिनोद बाबू हैं। वकालत की दुनिया में उन्होंने महज़ कुछ ही वर्षों में प्रतिष्ठित अधिवक्ताओं के बीच अपना नाम बना लिया। उनके वकालत से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा है, जिसने वाकई उन्हें वकालत की दुनिया में प्रतिष्ठा दी।
बताया जाता है कि बोकारो स्टील प्लांट के लिये जमीन अधिग्रहण के दौरान रैयतों को सरकारी अधिकारी बहुत परेशान करते थे। कौड़ी के भाव में जमीन ले ली जाती थी। रैयतों के पास केस लड़ने के लिये पैसे नहीं होते थे। तब बिनोद बाबू उनका केस अदालत तक लेकर जाते थे, और उचित मुआवजा दिलाते थे। केस का फैसला होने के पहले एक पैसा रैयतों से नहीं लेते थे। जब मुआवजा मिल जाता था तब उसका एक छोटा सा हिस्सा ही फीस के तौर पर लेते थे। इस फीस का ज्यादातर हिस्सा वह स्कूल कॉलेज को दान कर देते थे।
बिनोद बाबू का राजनीतिक जीवन
इसके बाद बिनोद बिहारी महतो ने राजनीति में कदम रखा। इसकी शुरुआत उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से की। पहली बार उन्होंने धनबाद लोकसभा सीट से साल 1971 में चुनाव लड़ा, मगर जीत हासिल नहीं हुई। आगे चलकर उन्होंने साल 1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी की स्थापना की। झामुमो की स्थापना में शिबू सोरेन और एके राय भी उनके साथ थे। इस पार्टी में बिनोद बाबू अध्यक्ष पद पर रहे। फिर साल 1980 में टुंडी विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए। विधायकी का सिलसिला 1985 तक चलने के बाद साल 1991 में गिरिडीह लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने गए।
आखिरकार 18 दिसंबर 1991 को दिल्ली के एक अस्पताल में इलाज के दौरान बिनोद बिहारी महतो का निधन हो गया।
बिनोद बाबू के महत्तवपूर्ण योगदान
अपने जीवनकाल में उन्होंने कई महत्वपूर्ण काम किए, जिससे आज उन्हें एक सफल कलमकार, रणनीतिकार, अधिवक्ता के तौर पर याद किया जाता है। उन्होंने एक समाज सुधारक के रुप में भी अपनी महती भूमिका निभाई। उनके बारे में कहा जाता है कि सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिये वह दोषियों को सज़ा देने से भी पीछे नहीं हटते थे। पूरे झारखंड की दशा को बदलने में उनका योगदान रहा है।
झारखंड आंदोलन को जो पहले आदिवासियों का आंदोलन कहा जाता था, बिनोद बिहारी महतो के हस्तक्षेप के बाद इसमें गैर आदिवासी जुड़ पाये। 1971 से लेकर 72 तक उन्होंने कुछ स्कूलों और कॉलेजों को 4 -5 लाख तक का सहयोग दिया ताकि ज्यादा से ज्यादा स्कूल खुल सकें औऱ समाज के सभी वर्गों के बच्चे वहां पढ़ लिखकर आगे बढ़ सकें।
शिक्षा के साथ साथ झारखंडी संस्कृति को आगे बढ़ाने में भी उनका अहम योगदान रहा है। वह इसके लिये आर्थिक सहायता भी प्रदान करते थे।कई झूमर और करम गीतों में भी बिनोद बाबू का उल्लेख मिलता है। अपने जीवन के अंतिम समय तक वह सामाजिक लड़ाई लड़ते रहे।