L19 Ranchi : आदिवासी राष्ट्रपति और बिरसा मुंडा के राष्ट्रीय आदिवासी आइकॉन बनने के बावजूद भारत के लगभग 15 करोड़ आदिवासियों का वजूद खतरे में खड़ा है। क्यों? 75 वर्षों की आजादी और 23 वर्षों के झारखंड प्रदेश के बावजूद संविधान- कानून प्रदत आदिवासी अधिकार नहीं मिल सके हैं। क्यों? भारत के पार्लियामेंट में 47 आरक्षित आदिवासी लोकसभा के सांसद और विभिन्न विधान सभाओं में शामिल 553 आरक्षित आदिवासी विधायकों के बावजूद देश में आदिवासी आवाज और आदिवासी नेतृत्व शून्य जैसा है।
क्यों? झारखंड में अबतक 10 बार आदिवासी मुख्यमंत्री बनने के साथ- साथ एक समय आदिवासी ही मुख्यमंत्री, आदिवासी ही विरोधी दल का नेता और आदिवासी ही राज्यपाल तब भी संवैधानिक और कानूनी प्रावधान लागू नहीं हो सके हैं। क्यों? आदिवासियों के लिए हासा (अर्थात 22 दिसंबर 1855 को स्थापित संताल परगना और 15 नवंबर 2000 को स्थापित झारखंड प्रदेश) और भाषा (अर्थात देश की प्रथम बड़ी आदिवासी संताली भाषा- 22 दिसंबर 2003 को राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त- आठवीं अनुसूची में शामिल) विजय के बावजूद आदिवासियों के लिए सबकुछ बेकार जैसा है। क्यों? लाखों शिक्षित तथा रोजगारमुख आदिवासियों की उपस्थिति के बावजूद आदिवासी गांव- समाज मर रहा है, रोज मर रहा है।
क्यों? सरना धर्म कोड और आदिवासी राष्ट्र के लिए बिरसा जयंती- 15 नवंबर को भी आदिवासी अनशन और आत्मदाह करने को विवश हैं। क्यों? भारत के संसद, देश के सभी विधान मंडलों और त्रिस्तरीय ग्राम पंचायत में अवस्थित हजारों आदिवासी जनप्रतिनिधियों, देश के कोने -कोने में अवस्थित हजारों आदिवासी जनसंगठनों और हजारों आदिवासी डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, वकील, आईएएस- आईपीएस ऑफसरों आदि के अलावा हर आदिवासी गांव- समाज में आदिवासी स्वशासन प्रमुखों (माझी परगाना, मानकी मुंडा आदि) के होने के बावजूद लगभग प्रत्येक आदिवासी गांव- समाज में नशापान, अंधविश्वास, डायन प्रथा, ईर्ष्या द्वेष, आदिवासी महिला विरोधी मानसिकता, वोट की खरीद- बिक्री,राजनीतिक कुपोषण,धर्मांतरण,विस्थापन- पलायन की चिंता और दंश, राजतांत्रिक स्वशासन व्यवस्था आदि हावी है। संविधान, कानून, मानव अधिकार लागू नहीं है।
अंतत: सभी आदिवासी गांव- समाज में मंजिल की सूझबूझ और एकता की घोर कमी है। सभी भटकने को मजबूर हैं। क्यों? भारत के आदिवासियों को अब अमेरिका के काले नीग्रो लोगों की तरह डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग जूनियर द्वारा दिखाए गए एक बड़े सपना को देखना और साकार करना होगा। राजा राममोहन राय की तरह सती प्रथा जैसी गलत प्रथा,परंपराओं को तोड़कर ब्रह्मा समाज की तरह एक नया आदिवासी समाज बनाना होगा। महात्मा ज्योतिबा फुले की तरह अपनी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक गुलामगिरी की जंजीरों को तोड़ना होगा। तर्कपूर्ण सत्यशोधक समाज खड़ा करना होगा।
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और मान्यवर कांशीराम की तरह सकारात्मक राजनीति का पाठ पढ़ाकर समाज को राजनीतिक कुपोषण से मुक्त करना होगा। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय दिलाना होगा। बिरसा मुंडा और सिदो मुर्मू की तरह समाज के लिए अंग्रेजों के खिलाफ समर्पित भाव से संघर्ष करना होगा न की पद, प्रतिष्ठा, लाभ और सत्ता के लोभ लालच में समाज के साथ धोखेबाजी करना है। डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने लगभग 300 वर्षों तक अमेरिका में गुलाम बने नीग्रो लोगों को आवाज दिया- “आओ एकजुट हो जाओ, हमारे पास तुम्हारे लिए गुलामी से आजादी का एक सपना है।” काले लोग 28 अगस्त 1963 को अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डी सी में लाखों की संख्या में जमा हुए। डॉक्टर किंग ने कहा- अब हम आजाद होंगे। क्योंकि संविधान में हमारे लिए भी हिस्सा है। काले और गोरे दोनों का खून लाल है अर्थात हम बराबर के हकदार हैं।
ईश्वर ने सबको एक समान बनाया है। आखिर नीग्रो लोगों को आजादी मिली। डॉक्टर किंग ने कहा था- इंसान जब तक व्यक्तिगत चिताओं के दायरे से ऊपर उठकर पूरी मानवता की वृहद चिंताओं के बारे में नहीं सोचता है। तब तक उसने जीवन जीना ही शुरू नहीं किया है। तब भी अपने लिए जीते हो… तो तुम्हारा, बच्चों का भविष्य तुम्हारा समाज का दुश्मन तय करेगा। हो सकता है तुम बच जाओ, मगर पीढ़ियों की गुलामी की जिम्मेदार तुम खुद हो। आदिवासी समाज तभी बचेगा जब उसका हासा, भाषा, जाति, धर्म, रोजगार,इज्जत,आबादी और संविधान- कानून प्रदत्त अधिकार बचेंगे। इसके लिए आदिवासी समाज को एक वृहद एकता और निर्णायक जन आंदोलन खड़ा करना पड़ेगा।
हर आदिवासी गांव-समाज में नशापन, अंधविश्वास, डायन प्रथा, वोट की खरीद बिक्री आदि को बंद कर समाज सुधार करना होगा। अधिकांश अनपढ़, पियक्कड, नासमझ लोगों के द्वारा संचालित आदिवासी स्वशासन व्यवस्था को भी अभिलंब जनतांत्रिक और संविधानसम्मत बनाना जरूरी है। ताकि पढ़े- लिखे आदिवासी स्त्री पुरुषों की भागीदारी का रास्ता प्रशस्त हो सके। सबको सरना धर्म कोड और भारत राष्ट्र के भीतर (झारखंड को केन्द्रित कर) आदिवासी राष्ट्र निर्माण जैसे बड़े सपनों के साथ जोड़ना होगा, एकजुट करना होगा। प्रत्येक आदिवासी गांव- समाज में समाज सुधार और एकजुटता आ जाए तो देश में आदिवासी समाज अपने सपनों को जरूर पूरा कर सकता है। परन्तु आदिवासी समाज पर आज गलत और स्वार्थ की राजनीति हावी है।
जबकि गैर-आदिवासी समाज अपनी समृद्धि के लिए राजनीति पर हावी है। आदिवासी समाज के नाम पर आरक्षित सीटों से जीतने वाले लगभग सभी आदिवासी एमएलए / एमपी आदिवासी समाज के बदले केवल पार्टियों की गुलामी करते हैं। उसी प्रकार अधिकांश आदिवासी सामाजिक जनसंगठन भी उन्हीं आदिवासी नेताओं की परिक्रमा करते हैं और समाज की अपेक्षा आदिवासी विरोधी राजनीति में सहयोग करते हैं। प्रत्येक आदिवासी गांव- समाज में भी आदिवासी स्वशासन व्यवस्था के नाम पर वंशानुगत काबिज अधिकांश आदिवासी प्रमुख या ट्राइबल चीफ़्टेन समाज को एकजुट कर आगे बढ़ाने के बदले नशापान, अंधविश्वास, डायन प्रथा, डंडोम (जुर्माना लगाना ), बारोन (सामाजिक बहिष्कार), डान पनते (डायन बनाना), रूमूग (झुपना), बुलुग (मताल होना), वोट की खरीद- बिक्री जैसी बुराईयों की दलदल में धकेलते रहते हैं। हर आदिवासी गांव- समाज को एक बड़ा सपना, समाज सुधार और एकता का संकल्प देना होगा। तभी आदिवासी को मंजिल मिलेगी। अन्यथा वह अपने पेट, परिवार और स्वार्थ की दुनिया में भटकता रह जायेगा। फिलवक्त आदिवासी समाज को अपनी मंजिल की प्राप्ति के लिए राजनीति से ज्यादा समाज नीति की फिक्र करना श्रेयस्कर हो सकता है। पार्टियों और उसके वोट बैंक को बचाने की अपेक्षा मरणासन्न आदिवासी समाज को बचाना अधिक जरूरी है।