L19/DESK : यूँ तो भारत के आदिवासियों का अस्तित्व सिन्धुघाटी सभ्यता से ही रही है, साथ ही इनकी अपनी विशिष्ट जीवकान शैली और परम्परा ने इन्हें कभी भी किसी अन्य समुदाय से जोड़ने में सफलता नही मिली है. इन आदिवासियों का इन्ही विशिष्ट शैली और परम्परा के साथ कालांतर से ही लोगों ने छेड़छाड़ किया है जिसका परिरं रहा है कि आदिवासियों ने समय समय पर विद्रोह भी किया. लेकिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्राणों की आहूति देने वाले वीर शहीदों में कुछ एक नाम भारतीय इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित हुए हैं। लेकिन कई ऐसे नाम भी हैं जो गुमनामी के गर्त में समा गए हैं। इन गुमनाम शहीदों में कुछ नाम ऐसे हैं जिनकी त्याग, जिनकी आहूति उन कई नामों से अधिक मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण रही है, जिन्हें इतिहास में जगह मिलती है।
जी हाँ हम बात कर रहे हैं ऐसे ही गुमनाम नामों में छोटानागपुर के वीर शहीद बुधु भगत का। वीर शहीद बुधु भगत छोटानागपुर के उस जन आन्दोलन के नायक थे, जिनके आन्दोलन को अंग्रेजों ने ‘1832 का कोल विद्रोह’ का नाम दिया. जिन्हें झारखंड के आदिवासियों के बीच एक रहस्यमई नेता के रूप में जाना जाता था और लोग भगवान का अवतार मानते थे और ऐसा भी कहा जाता है बुधु भगत एक ही बार में दो-तीन जगह पर दिखाई देते थे.अंग्रेजों के आने से पहले झारखण्ड में सेठ सहकर और जमींदारों के खिलाफ कई आन्दोलन हो चुके थे, पर कोल विद्रोह जैसा आंदोलन नहीं हुआ था। अंग्रेजों ने छोटानागपुर के राजाओं से मालगुजारी वसूलना शुरू कर दिया था,जिसका असर राजा एवं जमींदारों से होते हुए आम जनता पर पड़ने लगा था।
सारा खेल अंग्रेजों का था, 1832 के आंदोलन का कारण कुंवर हरनाथशाही द्वारा पठानों एवं सिक्खों को आदिवासियों के कुछ गांवों का मालिकाना हक सौंपना और उन लोगों पर उनका अत्याचार था। हालंकि, हकीकत यह है कि आंदोलन की चिंगारी तीन सालों से इकट्ठी हो रही थी।मानकियों पर होने वाले अत्याचार ने इस चिंगारी को भड़काने का काम किया। अंग्रेजों के छोटानागपुर आने के बाद 1805, 1807, 1808 और 1819-1820 में भी आंदोलन हुए थे और अंग्रेजों के खिलाफ ही हुए थे। इसी तरह, 1832 का आंदोलन भी विदेशी साम्राज्य से आजादी का आंदोलन था।
वीर बुधु भगत जन्म 17 फरवरी, 1792 को रांची जिला के चान्हो प्रखंड के सिलागाई गांव में हुआ था। वे उरांव जाति के थे। उनका परिवार का पेशा खेती-बारी था। वीर बुधु भगत (Budhu Bhagat) तीर चलाने में माहिर थे। दरअसल, कम समय में ही वे अपनी कई खूबियों की वजह से इतने प्रसिद्ध हो गए कि लोगों को ऐसा लगने लगा कि उन्हें किसी प्रकार की दैवीय शक्ति मिली हो।
इनके दो बेटे हलधर और गिरधर थे, जिनकी वीरता के सामने अंग्रेजी सेना और अंग्रेजों के चाटूकार जमींदारों को पराजय का मुंह देखना पड़ा था। बुधु भगत की संगठनात्मक क्षमता अद्भुद थी। वे भेद-भाव से आम जनता को बचाना चाहते थे।
दरअसल, अंग्रेज न केवल अपना चेहरा साफ रखना चाहते थे, बल्कि छोटानागपुर के संगठित जनता में बैर भी पैदा करना चाहते थे। इसलिए बुधु भगत ने दूर-दराज के गांवों के लोगों से आपसी भेद-भाव को दूर कर एक साथ अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने की अपील की थी।
उन्होंने कभी भी अन्याय को बर्दाश्त नहीं किया। बुधु भगत (Budhu Bhagat) बचपन से ही जमींदारों और अंग्रेजी सेना की क्रूरता देखते आये थे। उन्होंने देखा था कि किस तरह तैयार फसल जमींदार जबरदस्ती उठा ले जाते थे और गरीब गांव वालों के घर कई-कई दिनों तक चूल्हा नहीं जल पाता था। अपनी जमीन और जंगल की रक्षा के लिए जब सैकड़ो की तादाद में आदिवासियों ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ लोहा लेने का संकल्प लिया, तो उन्हें वीर बुधु भगत जैसा नायक मिला। अपने दस्ते को बुधु ने गुरिल्ला युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया।
यह उनकी लोकप्रियता का असर था कि ‘लरका आंदोलन’ सोनपुर, तमाड़ एवं बंदगांव के मुंडा मानकियों का आंदोलन न होकर छोटानागपुर की जनता का आंदोलन बन गया था। वीर बुधु भगत के प्रभाव का अंदाजा अंग्रेजों को हो गया था। छोटानागपुर के तत्कालीन संयुक्त आयुक्तों ने 8 फरवरी, 1832 को अपने पत्र में बुधु भगत के विस्तृत प्रभाव एवं कुशल नेतृत्व का उल्लेख किया है। बुधु भगत की लोकप्रियता एवं जनमानस पर उनके प्रभाव को अंग्रेज अधिकारियों ने भी माना था
अंग्रेजों द्वारा बुधु भगत को घेरने और गिरफ्तार करने के सभी कोशिशें नाकाम हो चुकी थीं। कभी-कभी तो एक ही समय में बुधु भगत को दो स्थानों पर देखे जाने की सूचना मिलती। सूचनाओं के आधार पर अंग्रेजी फौज अपनी पूरी ताकत के साथ उन जगहों पर पहुंचती और इन्हें घेर पाती इसके पहले ही बुधु भगत अपना काम पूरा कर जंगलों में खो जाते।
कुछ पता नहीं चल पाता था कि किस रफ्तार से, किस रास्ते से और किस तरह बुधु भगत एक पल एक जगह पर होते तो दूसरे ही पल कोसों दूर दूसरी जगह पर मिलते। यह रहस्य लोगों की समझ से बाहर था। अंग्रेज यह मानकर संतोष कर बैठे थे कि बुधु भगत को इलाके के जंगलों, पहाड़ों एवं बीहड़ों की अच्छी जानकारी थी। चूंकि भगत (Budhu Bhagat) को बड़ा जन-समर्थन प्राप्त था, इसलिए लोग उन्हें न केवल सुरक्षा देते थे, बल्कि हर झोपड़ी, हर मकान उन्हें पनाह देने को तत्पर रहते थे।
अंत में हताश अंग्रेज अधिकारियों ने बुधु भगत को जीवित या मृत पकड़वाने वाले को एक हजार रुपए पुरस्कार की घोषणा कर दी। अंग्रेजों के पास यही एक चारा बचा था, जो मुखबिरों से यह काम करवा सकता था। शायद. अंग्रेजों द्वारा इस तरह इनाम घोषित करने की यह पहली घटना थी। छोटानागपुर के बुधु भगत पहले ऐसे योद्धा थे जिन्हें पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने पुरस्कार की घोषणा की थी।
हालांकि, कहा जाता है कि बुधु भगत (Budhu Bhagat) अजातशत्रु थे और आम लोग उनसे अलग होने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। बुधु भगत की लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि उनके लोग चारों ओर से उन्हें घेरे रहते थे। कहा जाता है कि जब अंग्रेजों ने बुधु भगत को घेरा तब उन्हें बचाने के लिए 300 लोगों ने उन्हें घेर लिया.
अंग्रेजों की गोलियां इन लोगों के सीने के पार होती जा रही थी और इस भीड़ में बुधु भगत अंग्रेजों की पहुंच से दूर निकल गए। कहा जाता है कि वीर बुधु भगत को पकड़ पाना तथा मार पाना असंभव था, परंतु वे अपने बेटों की मृत्यु हो जाने से अंदर से कमजोर पड़ गये थे। 13 फरवरी, 1832 को ‘कोल विद्रोह’ के नायक वीर बुधु भगत अंग्रेजों से लड़ाई लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गए।