L19/DESK : झारखंड मतलब जल जंगल जमीन .. जल, जंगल जमीन मतलब आदिवासी और आदिवासी मतलब वंचित, शोषित, लाचार, अभागे, कमजोर और ना जाने क्या क्या आप खुद समझ सकते हैं। जिस राज्य की कल्पना ही आदिवासी से हो उस राज्य की राजनीति के केंद्र बिन्दु में आदिवासी ना हो ऐसे कैसे हो सकता है। राज्य अलग हुए 24 साल हो गए, 13 बार मुख्यमंत्री बदल गए। इन 13 मुख्यमंत्रियों में से 12 मुख्यमंत्री आदिवासी बने, आदिवासियों के हक अधिकार हेतु दर्जनों कानून पास हुए लेकिन आदिवासी की स्थिति अब भी जैसा का तैसा ही बना हुआ है।
कभी इस राज्य में आदिवासी बहुसंख्यक में हुआ करते थे लेकिन अब इनकी संख्या घटकर मात्र 26 पर्सेंट रह गई है और आए दिन लगातार आदिवासियों की संख्या में कमी देखी जा रही है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि ऐसा आरोप भारतीय जनता पार्टी के द्वारा बार-बार लगाया जाता है कि झारखंड के संथाल परगना में संथालियों की जनसंख्या में लगातार कमी हो रही है हालांकि यह सिर्फ संथाली समाज की बात नहीं है यह उन सभी 32 आदिवासी समुदाय की समस्या है जो झारखंड में निवास करते हैं और उनकी जनसंख्या में भी लगातार कमी देखी जा रही है।
त क्या कारण है आदिवासियों की आबादी में कमी होने का, भारतीय जनता पार्टी द्वारा उठाया गया यह मामला कितना सच है आइए इन तथ्यों को विस्तार से समझते हैं।
जैसे जैसे झारखंड में विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहा है आदिवासियों और मुसलमानों की आबादी का मामला तुल पकड़ता जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी का यह बार बार आरोप रहता है कि संथाल परगना मे आदिवासियों की संख्या में कमी आ रही है, जबकि यहां पर मुसलमानों की आबादी बढ़ रही हैं। इस संबंध में पार्टी ने चुनाव आयोग में भी इसकी शिकायत की है। भौगोलिक तौर पर झारखंड 4 हिस्सों यानी संथाल परगना, कोल्हान, उत्तरी छोटानागपुर और दक्षिण छोटानागपुर में बंटा है। संथाल परगना इलाके में झारखंड के 6 जिले गोड्डा, देवघर, दुमका, जामताड़ा, साहिबगंज और पाकुड़ शामिल हैं।
बीजेपी के मुताबिक साल 1951 में जब पहली बार जनगणना कराई गई थी, उस वक्त संथाल परगना के जिलों में आदिवासियों की आबादी लगभग 45 प्रतिशत थी। वहीं 9 प्रतिशत के आसपास मुसलमान थे. 46 प्रतिशत आबादी दलित, ओबीसी और सवर्ण समाज की थी। 1971 में इस आंकड़ों में बढ़ोतरी देखी गई। साल 1971 में आदिवासियों की संख्या में गिरावट हुई और इस साल संथाल परगना में आदिवासी 45 से 36.22 प्रतिशत हो गए,वहीं मुसलमान 9 से बढ़कर लगभग 15 प्रतिशत हो गए। 1981 के जनगणना में आदिवासियों की आबादी में मामूली बढ़त देखी गई. इस साल के जनगणना के मुताबिक यहां पर आदिवासियों की संख्या 36.80 प्रतिशत थी,वहीं मुसलमानों की संख्या में करीब 2 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।
साल 2011 के जणगणना के मुताबिक संथाल परगणना में घटकर आदिवासी करीब 28 प्रतिशत पर पहुंच गए. वहीं मुसलमानों की संख्या में जबरदस्त बढ़ोतरी देखी गई. मुसलमान यहां बढ़कर 22.73 प्रतिशत पर पहुंच गए. संथाल परगना में मुसलमानों की आबादी बढ़ने की 3 बड़ी वजहें बताई जा रही हैं-
इस इलाके में बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी घुसपैठियों का प्रवेश हुआ है। झारखंड का संथाल परगना बंगाल सीमा से लगा हुआ है और इसी के जरिए इन इलाकों में बांग्लादेशी आकर बस गए हैं।
पूर्व सीएम चंपई सोरेन ने विधानसभा में इसको लेकर एक बयान दिया था. उनके मुताबिक आदिवासियों की आबादी पूरे झारखंड में कम हुआ है. यह क्यों हुआ है, इसकी समीक्षा की जानी चाहिए. आदिवासियों को उसके हक और अधिकार मिले, तभी बात बन सकती है। संथाल परगना में धर्म परिवर्तन भी आदिवासियों के कम होने की एक बड़ी वजह है. 2017 में सरकार ने इसको लेकर कानून भी बनाया था, लेकिन इसके बावजूद कई जगहों से जबरन धर्म परिवर्तन के मामले सामने आए हैं।
वैसे भारतीय जनता पार्टी द्वारा इस मुद्दे को बार बार उठाने का मकसद क्या है आइए इसे संक्षिप्त में समझते हैं?
आबादी घटने बढ़ने के इस मामले को बीजेपी विधानसभा से लेकर चुनाव आयोग और राज्यपाल तक उठा रही है। पार्टी चुनाव से पहले इस मामले को धार देना चाहती है। बीजेपी की इस रणनीति के पीछे 2 मुख्य कारण हैं।
A. हेमंत का आदिवासी और मुसलमान गठजोड़ की राजनीति पर ज्यादा फोकस होना
साल 2019 में लोकसभ चुनाव हारने के बाद हेमंत सोरेन ने आदिवासियों और मुसलमानों का एक गठजोड़ तैयार किया था। हेमंत ने इसी समीकरण को साधने के लिए कांग्रेस और आरजेडी से गठबंधन किया। टिकट बंटवारे और मेनिफेस्टो में भी इन्हीं समुदाय को तरजीह दी। हेमंत का यह समीकरण हिट रहा और बीजेपी की सरकार चली गई। हालिया लोकसभा चुनाव में भी आदिवासी और मुसलमानों ने इंडिया गठबंधन का समर्थन किया, जिसके कारण आदिवासी बहुल सभी 5 सीटें बीजेपी हार गई। बीजेपी डेमोग्राफी का मुद्दा उठाकर इस समीकरण को झारखंड खासकर संथाल परगना में तोड़ना चाहती है. संथाल परगना के 6 जिलों में विधानसभा की कुल 18 सीटें हैं. 2019 के चुनाव में इन 18 में से सिर्फ 4 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी.
B.भारतीय जनता पार्टी द्वारा झारखंड में आदिवासियों को लुभाने की कोशिश
झारखंड आदिवासी बाहुल्य राज्य है, रघुबर दास को छोड़ दिया जाए तो अब तक जितने भी मुख्यमंत्री बने हैं, सब आदिवासी समुदाय के ही रहे हैं। राज्य में विधानसभा की 81 में से 28 सीट आदिवासियों के लिए रिजर्व है,रिजर्व सीट को छोड़ भी दिया जाए तो करीब 30 ऐसी सीटें हैं, जहां पर आदिवासी मतदाताओं का दबदबा है। पिछले विधानसभा चुनाव में इन 28 में से सिर्फ 2 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी। यह दोनों ही सीट खूंटी जिले की थी। हालिया लोकसभा चुनाव में खूंटी में भी बीजेपी को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। पार्टी के कद्दावर नेता अर्जुन मुंडा यहां से चुनाव हार गए हैं। ऐसे में आदिवासियों को साधना बीजेपी के लिए जरूरी है. यही वजह है कि बीजेपी आदिवासियों के मुद्दों को जोर-शोर से उठा रही है।
ऐसे में इस साल यानी 2024 का विधानसभा चुनाव झारखंड के लिए दिलचस्प होने वाला है क्योंकि एक ओर जहां इंडिया महागठबंधन आदिवासी को लुभाने के लिए जोर लगाए हुए हैं वहीं भारतीय जनता पार्टी की गिद्ध नजर भी आदिवासियों पर है। हालांकि इन सभी राजनीतिक दल सिर्फ आदिवासियों को अपनी वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते हैं बाकी विकास के नाम पर सिर्फ उन्हें झुनझुना धाराया जाता है बाकी इस पर आप क्या सोचते हैं अपनी प्रतिक्रिया कमेंटबॉक्स में दे सकते हैं।