L19 DESK : आदिवासी समाज में एक नारा बहुत प्रचलित है और वह नारा है आदिवासी एकता जिंदाबाद. यह नारा सुनने से लगता है मानो आदिवासियों में सच में बहुत एकता है, लेकिन जब भी कोई मुद्दा आता है तो आदिवासी समाज हमेशा दो धरा में बटा हुआ नज़र आता है. वर्तमान समय में JPRA यानी झारखंड पंचायती राज अधिनियम, पेसा और पी-पेसा को लेकर आदिवासी समाज खुद में उलझा हुआ है. कोई JPRA लागू कराने की बात कर रहा तो कोई पेसा कानून. हालांकि इन सब में कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि पेसा और पी-पेसा दोनों एक ही चीज है इसलिए शब्दों में न उलझा जाए, तो अब बच गया JPRA और पेसा कानून.
ऐसे तो पेसा कानून को आए दो दशक से भी ज्यादा समय हो गया है लेकिन अभी तक ये झारखंड में पूर्ण रूप से लागू नहीं हो पाया है. JPRA और पेसा कानून को लेकर उठे सवाल और विवाद को समझने से पहले आपको इन दोनों को समझना बहुत जरुरी है तभी आप इस पर अपनी कुछ राय बना पाएंगे.
तो सबसे पहले समझते है कि JPRA यानी झारखंड पंचायती राज अधिनियम क्या है. दरअसल, 1990 के दशक में हमारे देश की शासन व्यवस्था में एक विशेष परिवर्तन आया, जिसके तहत त्रिस्तरीय पंचायत राज्य व्यवस्था को देश में लागू करने के लिए संविधान में बदलाव किए गए. 20 अप्रैल, 1993 को संविधान के 73वें संशोधन विधेयक को भारत के राष्ट्रपति ने अनुमोदन किया और उसे 24 अप्रैल, 1993 को पूरे देश में लागू किया गया. इस तरह पंचायती राज व्यवस्था पूरे देश में लागू हुआ. पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत राज्य को तीन स्तरों में बांटा गया है. ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, दूसर– ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति और तीसरा- जिला स्तर पर जिला परिषद.
चूंकि भारतीय संविधान के अनुछेद 243(एम-1) में यह स्पष्ट उल्लेखित है कि “पंचायत कानून” अनुसूचित क्षेत्रों यानी “शेड्यूल एरिया“ जिसका सीधा अर्थ है वह क्षेत्र जिसे भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची में सूचीबद्ध किया गया है या आसान शब्दों में कहें तो जिस शेत्र का नाम पांचवीं अनुसूची यानी 5th शेड्यूल में रखा गया है और उत्तर–पूर्व के जनजाति क्षेत्रों यानी की छठी अनुसूची में लागू नहीं होगा. हालांकि यह भी कहा गया कि भारत सरकार संविधान के अनुछेद 243(एम-4-बी) के तहत संशोधन करते हुए कानून बना कर पंचायत के उपबंधों को उक्त क्षेत्रों में विस्तार कर सकती है.
जब देश में पंचायती राज व्यवस्था लागू हुआ तब अनुसूचित क्षेत्रों को इससे अछूता नहीं रखा जा सकता था इसलिए केंद्र सरकार ने पेसा कानून 1996 के जरिए अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत के उपबंधों का विस्तार करते हुए अलग पंचायत व्यवस्था बनाई. यह व्यवस्था देश के 10 राज्यों जहां आदिवासी इलाके चिन्हित किए गए जैसे- झारखंड, छत्तीसगढ़, ओड़िसा, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में लागू किया गया.
अब आते है पेसा कानून पर. देश के अनुसूचित क्षेत्रों के अंतर्गत आने वाले गांवों के आदिवासियों को सशक्त बनाने, शासन व्यवस्था में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने और उनके अधिकारों की सुरक्षा हेतु “पंचायत उपबंध अधिनियम यानी पेसा कानून 1996 एक क्रांतिकारी कानून लाया गया.
24 दिसबंर, 1996 को संसद में जब पेसा कानून, 1996 पारित किया गया तब देश के आदिवासी बहुल इलाकों में लोग ख़ुशी से झूम उठे. अनुसूचित क्षेत्रों के विभिन्न गांवों में ढोल, नगाड़े और मांदर की थाप से पूरा इलाका गूंज उठा था. चारों तरफ नारे लगाए जा रहे थे “हमारे गांव में हमारा राज“ जिसे हम झारखंड में कहते हैं- अबुवा दिसुम अबुवा राज. उस वक़्त आदिवासियों को लगने लगा था कि अब वह दिन आ गया है जब वे अपने गांवों में स्वयं शासन व्यवस्था चलाएंगे और स्वशासन का सपना संवैधानिक रूप से साकार होगा.
लेकिन इस कानून में “ग्रामसभा” को गांव के प्राकृतिक संसाधनों पर मालिकाना हक देने के बजाय सिर्फ प्रबंधन एवं भूमि अधिग्रहण से पूर्व परामर्श की शक्ति तक ही सीमित कर दिया गया. मतलब कहने को तो पेसा कानून के अंतर्गत आदिवासियों के लिए बहुत कुछ था लेकिन अब तक की सरकारों ने इस मजबूत कानून को मात्र ग्रामसभा में परमिसन लेने तक ही सीमित कर दिया. इसे आप ऐसे भी समझ सकते है कि मान लीजिए तमाड़ के अडकी प्रखंड में अगर सोने का खदान खोदा जायेगा तो इसमें ग्रामसभा की मंजूरी अनिवार्य होगी, अगर ग्रामसभा इस खनन के लिए राजी नहीं होती है तो अड़की में सोने का खदान नहीं खोदा जा सकता. बस वर्तमान समय में पेसा कानून को यहीं तक सीमित कर दिया गया है. इसके अतिरिक्त इसके पास फिलहाल कोई शक्ति नहीं है लेकिन पेसा कानून को अगर इसकी पूर्ण शक्ति के साथ लागू कर दिया जाता तो आज झारखंड की दशा और दिशा कुछ और ही होती.