क्या भाजपा में शामिल होते ही हुसैनाबाद विधायक कमलेश सिंह के राजनीति पर ग्रहण लग गया है ? क्या वह आगामी विधानसभा का चुनाव हारने वाले हैं? क्या कमलेश सिंह को मोदी के परिवार में शामिल होने का खामियाजा भुगतना पड़ेगा ? ऐसे तमाम सवाल फिलहाल इसलिये उठने शुरु रहे हैं, क्योंकि बीते दिनों पलामू की हुसैनाबाद सीट से एनसीपी के विधायक कमलेश कुमार सिंह ने भाजपा का दामन थाम लिया, लेकिन उनके पाला बदलने के साथ ही हुसैनाबाद का राजनीतिक समीकरण काफी पेचीदा हो गया है। चर्चा इस बात की होनी शुरु हो गयी कि जिस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने कमलेश सिंह को पहचान दी, आखिर उन्हें भाजपा में क्यों शामिल होना पड़ गया, वो भी तब जब उन्हें पता है कि हुसैनाबाद सीट का राजनीतिक समीकरण भाजपा के पक्ष में जाता नहीं दिखता, तो क्या कमलेश सिंह इस पूरे समीकरण को बदल कर रख देंगे, या फिर उन्हें दल बदलने का हर्जाना भुगतना पड़ेगा।
दरअसल, “मिनी चित्तौड़गढ़” के रूप से प्रसिद्ध हुसैनाबाद विधानसभा पलामू की एकमात्र ऐसी सीट है, जहां पर बड़े बड़े राजनीतिकार भी फेल हो जाते हैं। ये ऐसी सीट है, जहां पिछले चालीस सालों के दौरान हुए 8 बार के चुनावों में किसी भी उम्मीदवार को लगातार 2 बार जीत नहीं मिली है। ऐसे ही कमलेश सिंह को भी लगातार 2 बार जीत का स्वाद चखने का मौका नहीं मिला, उन्होंने पहली बार साल 2005 के बाद सीधे साल 2019 में विधायिक की कुर्सी अपने नाम किया। दोनों बार उन्होंने एनसीपी की टिकट पर ही चुनाव लड़ा, और जीत हासिल की। इस बीच 2009 में राजद और 2014 में बसपा काबिज रही।
एनसीपी के इकलौते विधायक होने के नाते झारखंड की राजनीति में कमलेश सिंह की पहचान ऐसे निर्दलीय विधायक के रूप में थी, जिन्होंने अन्य निर्दलीय विधायकों के साथ मिलकर सरकारों के भाग्य तय किए। साल 2005 में यूपीए गठबंधन का घटक दल होने के नाते एनसीपी विधायक कमलेश सिंह ने शिबू सोरेन की सरकार को समर्थन दिया। लेकिन इसके तुरंत बाद ही उन्होंने समर्थन वापस भी ले लिया, जो सोरेन की सरकार गिरने की एक महत्वपूर्ण वजह बनी। फिर एनसीपी ने भाजपा के अर्जुन मुंडा को समर्थन दिया और फिर अर्जुन मुंडा की सरकार को अपदस्थ कर निर्दलीय मधु कोड़ा की सरकार को समर्थन दे दिया था. वहीं, साल 2019 में एकबार फिर एनसीपी विधायक कमलेश सिंह ने हेमंत सोरेन सरकार को 4 साल समर्थन दिया और पांचवे साल समर्थन वापस लेकर एनडीए में शामिल होने की घोषणा कर दी. यही वजह रही कि बीजेपी आलाकमान कमलेश सिंह को टिकट देने में संकोच करती रही। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, भाजपा ने कमलेश सिंह को एनडीए गठबंधन का संयुक्त प्रत्याशी बनाने से पहले उनके बीजेपी में शामिल होने की शर्त पेश कर दी थी। लेकिन सीधे सीधे भगवा धारण कर लेना कमलेश सिंह के लिये मुश्किलें खड़ी कर सकती हैं, क्योंकि हुसैनाबाद के चुनावी आंकड़े बताते हैं कि यहां की जनता ने दलबदलुओं को कभी विधायक की गद्दी पर विराजमान होने का मौका नहीं दिया है। उदाहरण हम साल 2014 का ही ले सकते हैं, जब बसपा के कुशवाहा शिवपूजन मेहता ने 57,275 वोट लाकर रिकॉर्ड मतों से विधानसभा का चुनाव जीता. लेकिन वही शिवपूजन मेहता ने जब साल 2019 के चुनाव में दलबदल कर आजसू से लड़ा, तो उन्हें मात्र साढ़े 15 हजार वोट्स मिले, जिससे वह अपनी जमानत जब्त होने से भी नहीं बचा पाये। इसी तरह दशरथ सिंह, बीरेंद्र सिंह जैसे और भी नाम हैं, जिनके ऊपर दलबदलु नेता का तमगा तो लगा ही, इसके साथ साथ उन्हें बूरी तरह हार का सामना भी करना पड़ा। इसमें एकमात्र अपवाद संजय यादव ही रहे हैं, जिनकी राजनीति पर दल बदलने का कोई खास असर नहीं पड़ा। ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि क्या कमलेश सिंह संजय यादव की तरह ही अपवाद साबित होते हैं, और हुसैनाबाद विधानसभा के राजनीतिक समीकरण को बदल कर रख देते हैं, या फिर बाकि दलबदलु नेताओं की तरह उन्हें भी इसका नुकसान झेलना पड़ेगा ? यहां एक औऱ बड़ा सवाल ये भी है कि कमलेश सिंह के भाजपा में शामिल होने से नाराज पार्टी के नेता कार्यकर्ता क्या उनके खिलाफ चुनाव में भीतरघात करेंगे ?
क्या विधायक कमलेश सिंह के बीजेपी में जाने से होगा नुकसान
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