L19 Desk : झारखंड की पारंपरिक आदिवासी खान-पान संस्कृति अब वैश्विक स्तर पर पहचान बनाने की राह पर है। राज्य के स्थानीय मोटे अनाज मड़ुआ (रागी/फिंगर मिलेट) से बने पौष्टिक भोजन- मड़ुआ छिलका को GI टैग दिलाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। लिहाज़ा, झारखंड का स्वाद अब सिर्फ गांव-देहात या राज्य की सीमाओं तक सीमित नहीं, बल्कि वैश्विक पहचान की ओर बढ़ रहा है। यह सिर्फ एक व्यंजन नहीं, बल्कि झारखंड की संस्कृति, परंपरा और स्थानीय किसानों की मेहनत का प्रतिनिधि है।
क्या है GI टैग ?
GI टैग(Geographical Indication Tag / भौगोलिक संकेतक टैग) एक प्रकार की कानूनी पहचान है, जो किसी उत्पाद को उसके विशेष भौगोलिक क्षेत्र से जोड़ती है। यानी कोई खास चीज़ (खाद्य, कृषि उत्पाद, हस्तशिल्प या अन्य वस्तु) अपने क्षेत्र की जलवायु, मिट्टी, परंपरा या कौशल के कारण अनूठी होती है, तो उसे GI Tag दिया जाता है।
GI Tag से क्या फायदा होगा ?
GI टैग यह साबित करता है कि उत्पाद विशिष्ट है और सिर्फ उसी क्षेत्र से जुड़ा है। किसी उत्पाद, खान-पान को यह तमगा मिल जाने से नकली या दूसरे इलाके में बने उत्पादों से सुरक्षा मिलती है। उत्पाद की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान बढ़ती है। किसानों, कारीगरों या स्थानीय समुदाय की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है।
इस लिहाज़ से अगर झारखंड के मड़ुआ छिलका को जीआई टैग मिल जाता है, तो यह राज्य की पहचान को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई ऊंचाई देगा। इससे मड़ुआ उगाने वाले किसानों को बेहतर दाम और सुरक्षित बाजार मिलेगा। वहीं महिला समूहों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। जीआई टैग मिलने से झारखंड की आदिवासी खान-पान संस्कृति और पारंपरिक व्यंजन को संरक्षण मिलेगा और यह राज्य के पर्यटन व ब्रांडिंग का अहम हिस्सा बनकर वैश्विक मंच पर झारखंड का नाम रोशन करेगा।
पर्यटन विभाग के निर्देश पर IHM ने किया GI टैग के लिये आवेदन
मड़ुआ छिलका को GI टैग दिलाने की पहल झारखंड सरकार के पर्यटन विभाग ने की है। विभाग ने इंस्टीट्यूट ऑफ होटल मैनेजमेंट, रांची (IHM) को GI टैग के लिये आवेदन देने का निर्देश दिया था। निर्देशानुसार IHM, रांची ने केंद्रीय उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग को आवेदन दे दिया है।
यूं ही नहीं मिलेगा GI टैग, देने होंगे इन सवालों के जवाब
IHM, रांची द्वारा झारखंड के मड़ुआ छिलका को GI टैग के लिये आवेदन दे दिया गया है, लेकिन यूं ही इसे तमगा नहीं मिलेगा। इसके लिये कुछ शर्तें होती हैं, कुछ सवालों के जवाब देने होते हैं। जवाब संतोषजनक हुआ, तभी यह टैग मिल सकता है। GI टैग के लिये साक्ष्यों और सबंधित तर्कों के आधार पर उत्पाद की विशिष्टता और उसकी ऐतिहासिक विरासत के बारे में ठोस प्रमाण भी देना होगा। मानकों पर खरा उतरने के बाद ही झारखंड को इसका जीआइ टैग मिलेगा।
GI टैग की प्रक्रिया के तहत केंद्रीय उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग (DPIIT) ने कुछ बिंदुओं पर जानकारी मांगी है। विभाग ने पूछा है कि, जीआई टैग मिलने से राज्य को क्या लाभ होंगे? मड़ुआ छिलका किन मानकों पर अनूठा है? इसकी व्यंजन विधि और सांस्कृतिक महत्ता क्या है?
अब इन तमाम सवालों का जवाब IHM, रांची को देना है। इस पूरी प्रक्रिया में IHM, रांची समन्वयक संस्था के रूप में काम कर रहा है।
पोषण और संस्कृति का प्रतीक बनेगा मड़ुआ छिलका
IHM रांची के प्राचार्य डॉ. भूपेश कुमार ने कहा कि झारखंडी मड़ुआ छिलका अपने स्वाद, पारंपरिक बनाने की विधि, विशिष्ट डिजाइन और पोषणीय गुणों के चलते जीआई टैग के लिए उपयुक्त है। इस टैग से ये भी साबित होगा कि झारखंड का यह पारंपरिक व्यंजन अपने स्वाद और सांस्कृतिक धरोहर के कारण कितना विशिष्ट है।
इसके साथ ही राज्यभर के विभिन्न हितधारकों – उत्पादक, विक्रेता, विपणन से जुड़े लोग और महिला स्वयं सहायता समूह व सखी मंडल की सहमति लेने की प्रक्रिया भी समानांतर रूप से शुरू कर दी गई है।
झारखंड में अब तक केवल सोहराई पेंटिंग को ही मिल सका GI टैग
झारखंड में अब तक केवल सोहराई पेंटिंग ही जीआई टैग हासिल कर पाई है। साल 2021 में हजारीबाग की इस पारंपरिक कला को जीआई मान्यता मिली थी और यह राज्य का पहला और अब तक का एकमात्र उत्पाद है, जिसे यह पहचान मिली है। इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि जीआई टैग के लिए जरूरी मानक, जैसे उत्पाद की गुणवत्ता, उपयोगिता, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और रोज़गार से जुड़ा महत्व राज्य स्तर पर साक्ष्यों और विवरणों के साथ प्रभावी ढंग से पेश नहीं किए जा सके। यही कारण है कि अब तक झारखंड के अन्य पारंपरिक उत्पाद इस सम्मान से वंचित रह गए हैं।
आगामी दिनों में इन 5 उत्पादों को भी मिल सकता है GI टैग
फिलहाल, GI टैग के लिये झारखंड के पारंपरिक और पौष्टिक आदिवासी व्यंजन मड़ुआ छिलका को दिलाने की प्रक्रिया चल रही है। आने वाले दिनों में इन 5 उत्पादों को भी भौगोलिक संकेतक टैग मिलने की संभावना है। इसमें शामिल हैं-
- आदिवासी आभूषण
- भगैया सिल्क
- कुचाई सिल्क
- कानी शॉल
- बांस शिल्प