ग्राउंड रिपोर्ट
L19/DESK : राजधानी रांची से 65 किलोमीटर की दूरी पर सिल्ली विधानसभा अंतर्गत स्थित अड़ाल नवाडीह गाँव बीते दो-तीन दिनों से काफ़ी चर्चा मे आ गया है। लोग आज से 80 साल पहले की एक कहानी जो मुंशी प्रेमचन्द द्वारा लिखित है “ठाकुर का कुआं” को याद कर रहे हैं। कल तक जिस गाँव को कोई नही जानता था वह गाँव आज रातों-रात सबके जुबान पर आ गया है। साथ कल तक इस गाँव से किसी को कोई मतलब नही था,पर अब है इसका उदाहरण भी दिख रहा है… गाँव मे बीते कुछ दिनों से नेता, सरकारी पदाधिकारी, मीडिया, सामाजिक अगुवा, बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों का आना-जाना लगा हुआ है। इस मसले पर रांची डीसी राहुल कुमार सिन्हा ने सिल्ली बीडीओ को आदेश मे भी दिया है कि सच्चाई की जांच कर रिपोर्ट सौपे,कि आखिर क्या है मामला।
अड़ाल नवाडीह गाँव का चर्चा मे आना : आखिर कारण क्या है?
दो जून दिन शुक्रवार को सुबह-सुबह प्रभात खबर के फ्रंट पेज़ पर एक ख़बर छपी थी,जिसे देखकर हर कोई भौचक रह गया और रहे भी क्यूँ नही? समाचार ही भौचक करने वाला था। सबके जुबान पर एक ही चर्चा का विषय बना हुआ था कि 21वीं सदी मे भी ऐसी कुकृति झारखण्ड मे घट रही है। अखबार मे लिखा था “सिल्ली का नवाडीह गाँव : यहाँ सभी कुएं ऊंची जाति वालों के, दलित नही भर सकते हैं पानी”। इस घटना ने लोगों कों झकझोर कर रख दिया। एक ओर जहां 19वीं सदी मे भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष ज़ोरों पर था, उसी दौर मे समाज मे फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए राजाराम मोहन राय, ईश्वर चंद विद्यासागर, दयानंद सरस्वती, एनी बेसेंट जैसे कई समाज सुधारकों ने समाज में फैली कुरीतियों और समाज से अंधविश्वास को दूर करने का प्रयास किया। महान कानूनविद बाबा साहब अंबेडकर ने 19वीं सदी के चौथे-पांचवे दशक मे जब देश मे संविधान निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी,ऐसे समय मे सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए संविधान मे कानून का प्रावधान को लागू किया,तब जाकर 20-21वीं सदी मे देश से कुछ हद तक सामाजिक कुरीतियाँ कम हुई। परंतु आज भी 21वीं सदी मे यदा-कदा ऐसी घटनाएँ देखने-सुनने को मिल जाती हैं।
ऐसी ही एक घटना बीते दिनों झारखंड मे भी देखने को मिला, जब रांची जिले के सिल्ली प्रखण्ड अंतर्गत अड़ाल नवाडीह गाँव के निम्न जाति अर्थात लोहार जाति को कुएं से पानी पीने के लिए अपने से ऊंचे जाति (ओबीसी समाज) से अनुमति लेना पड़ता है। जी हाँ आपने बिलकुल सही पढ़ा अड़ाल गाँव मे ऐसा ही होता है और यह कोई नई बात नही है यह प्रक्रिया पिछले दो-तीन पीढ़ी से चलता आ रहा है। गाँव की ही कमला देवी (लोहार जाति से संबंध रखती है ) बताती है ..गाँव मे लोहार जाति के तीन परिवार के 19,20 सदस्य रहते हैं, बरसात मे तो पानी की समस्या ज्यादा नही पड़ती, क्यूंकि पानी कहीं भी मिल जाती है परंतु गर्मी मे यह समस्या काफी बढ़ जाती है और यही से गाँव मे जाति-पांति का भेदभाव देखने को मिलता है। पानी की मारा–मारी मे अकसर दोनों पक्षों मे कहा-सुनी भी हो जाती है। गाँव मे ज्यदतर कुएं उंच जाति अर्थात ओबीसी लोगों के जमीन मे बने हैं,यही कारण है कि लोहार जाति के पिछड़े समुदाय को पानी पीने के लिए उंच जाति के लोगों पर निर्भर होना पड़ता है। जब भी इन लोगों को पानी भरना हो तो जब तक ऊंचे जाति के लोग उन्हे पानी भरकर नही देंगे तब तक वो पानी नही ले सकते। लोहार जाति के लोगों को खुद से पानी भरने कि अनुमति नही है। बताते चले कि इस गांव मे महतो जाति के लोग बहुसंख्यक मे निवास करते हैं,वही मुंडा आदिवासी परिवार के 10,12 परिवार रहते हैं।
गाँव की एक और महिला ने बताया कि गाँव मे कोई भी शादी-विवाह, भोज-संस्कार जैसे कार्यकर्मों मे लोहार जाति के लोगों को जमीन मे बैठकर भोजन करना पड़ता है, उनके लिए अलग से खाने-पीने की व्यवस्था की जाती है साथ ही उन्हे अपने पत्तल (प्लेट ) खुद फेकने पड़ते हैं। इसके अलावा इन्हे गाँव मे मारे हुये मवेशियों को फेकने का कार्य करना पड़ता है।गाँव के हर नेक नियम मे इन लोगों को सबसे अंत मे शामिल किया जाता है,तब तक के लिए इन्हे किसी कोने मे अपने समुदाय के साथ बैठे रहना पड़ता है।
ऊंची जाति (ओबीसी) के समुदाय का छुवाछूत मामले मे क्या मत है?
इस संबंध मे हमने जब गाँव के ही कुछ ऊंची जाति (ओबीसी) के लोगों से जानना चाहा कि आखिर क्या मामला है और इस मामले मे कितनी सच्चाई है? उनके उत्तर सुनने पर एकाएक हमे कुछ समझ नही आया, उन्होने बताया कि यह गाँव का ही एक परंपरा का हिस्सा है,जिसका निर्वहन लोहार समुदाय वर्षों से करते आ रहे हैं। एक भाई ने बताया कि मैं जबसे पैदा लिया हूँ जब से समाज मे इस परंपरा को देखते आ रहा हूँ,यह कोई नई बात नही है। समाज मे सबका काम बांटा हुआ है उसी अपने हिस्से के काम का ये लोग निर्वहन कर रहे हैं। ऐसी स्थिति हमारे गाँव मे ही देखने को मिलती है, ऐसी भी बात नही है, ऐसी स्थिति अगल-बगल के सभी गांवों मे है। एक सज्जन से जब इस संबंध मे हमने पूछा तो उसका जवाब ऊटपटाँग आया, उसने बताया कि ये दो चार दिन के लिए मीडिया मे आया है बाकी कुछ होने-जाने वाला नही है।
एक अन्य ओबीसी समाज का युवा से मिलने पर बताया कि वह सूअर पालन का काम करता है जिस कारण उसका समाज (ओबीसी) ही उसे तुच्छ मानता है। उसका सूअर पालना करना मतलब अपने समाज के इतर छोटा काम करना है,हालांकि लोहार वाले मामले मे उसने कुछ कहने से इंकार किया। लेकिन उसके बातों से समझा जा सकता है कि जो व्यवहार लोहार और निम्न जाति के साथ हो रहा है वैसा ही सुलूक उसके साथ भी किया जाता है।हालांकि हमने औरों से भी इस मसले पर बात करनी चाही,लेकिन लोगों ने बात करने से साफ इंकार किया।
इस पूरे मामले मे सच्चाई कितनी है?
इस पूरे मसले मे जब हमारी टीम ने गाँव का भ्रमण किया और सभी चीजों को बारीकी से समझने की कोशिश की तो काफी कुछ समझ मे आया….जहां तक मुझे समझ मे आया छुवाछूत जैसी यह मामला बिलकुल गलत है, और गलत होने के कारण भी अनेक हैं। परंतु जब हमने गाँव मे जाकर करीब से मामले को देखा और समझा तो कारण अनेक निकले। उनमे से प्रथम कारण यह है कि गाँव मे ऊंची जाति के लोग नही हैं जो हैं उनमे बहुसंख्यक मे कुर्मी समुदाय के लोग जो ओबीसी बैकवर्ड क्लास से आते हैं और दूसरी समुदाय 10,12 परिवारों की संख्या मे मुंडा आदिवासी हैं। जिस तरह से अखबार मे दिखाया गया कि ऊंची जाति तो मन मे तुरंत एक अलग तरह की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। दूसरी कारण जहां तक मुझे दिखाई दिया वह हैं रूढ़िवादी परंपरा जो वर्तमान मे समाज मे ना के बराबर दिखती है। गाँव वालों का कहना है कि वे इसी परंपरा का निर्वहन सदियों से करते आ रहे हैं,इसलिए ऐसा कोई बड़ी बात नही दिखाई पड़ती है,हालांकि इस मामले ने पूरे झारखंड मे सनसनी फैला दी है। लोहार समुदाय एक पिछड़ी आदिवासी समुदाय है जिसका पारंपरिक काम गाँव मे लोगों के लिए हल मे लगने वाले फार पजाना और लोहे से संबन्धित उपकरण बनाना है। इसके साथ ही रूढ़िवादी परंपरा के तहत इस समाज को अन्य वर्गों मे सबसे निचले पायदान रखा गया है। अपर समाज शुरू से ही इस समाज के साथ भेदभाव करता आ रहा है, इनको शादी-विवाह मे अलग जगह बैठाना, अन्य नेक-नियम मे इनकी भागीदारी सबसे अंत मे रहना जैसे कार्य आज के इस युग मे कुछ हजम नही होता। आज दुनिया तेजी से विकास कर रहा है, रोज नए नए आविष्कार हो रहे हैं, ऐसे दौर मे ऐसी घटनाओ का होना कहीं ना कहीं खटकता है।