“खोल दे पंख मेरे कहता है परिंदा
अभी तो और उड़ान बाकी है,
जमीन नही है मंजिल मेरी,
अभी पूरा असमान बाकी है।“
जी हाँ इस वाक्य को सच कर दिखाया है रांची स्थित कांके प्रखंड के सेमरटोली की एक आदिवासी बेटी पूर्णिमा लिंडा ने। बचपन से ही जिद्धी प्रवृति की और कुछ कर गुजारने की चाहत ने आज पूर्णिमा को गरीबी की तमाम कठिनाइयों के होते हुए भी फर्श से अर्श तक पंहुचाया दिया है, जहाँ पंहुचना लड़कियों के लिए एक सपने भर से ऊपर कुछ नही होता। आज के स्पेशल खबर में हम इसी आदिवासी बेटी पूर्णिमा लिंडा की दुःख-सुख भरी जीवन की संघर्ष यात्रा को विस्तार से आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। जब आप इस बेटी की संघर्ष भरी गाथा को पढेंगे और सुनेंगे तो आपकी आँखों से अपने आप आंसू की बुँदे बहने लगेगा।
अगर आप खेलों में रूचि रखते हैं और अखबार और सोशल मिडिया में अपडेट है तो आप वुशु नामक खेल को अच्छी तरह से समझते होंगे। वैसे आपकी जानकारी के लिए बताते चले कि वुशु एक पारंपरिक चाइनीज़ मार्शल आर्ट गेम है जिसे सांडा (SANDA) या संशोऊ (SANSHOU) के नाम से जाना जाता है। इस खेल में बैगर रस्सी वाले ऊँचे प्लेटफोर्म पर कमर में लाइफ वेस्ट से लैस बोकसर्स बिना जूतों के एक दुसरे पर हमला करते हैं और अपने प्रतिद्वंदी को प्लेटफोर्म से नीचे गिराकर अंक बटोरते हैं। कुल मिलाकर कहे तो वुशु मुक्केबाज़ी,कुश्ती,कराटे और बोक्सिंग का मिश्रित रूप है जिसमे दो प्रतिभागी आपस में एक दुसरे के हमले से खुद को बचाकर अंक हासिल करते हैं और विजय घोषित किये जाते हैं।
अगर आपमें जीतने की ललक हो और कुछ अलग कर गुजरने की जब्जा तो दुनिया का कोई भी ऐसी ताकत नही है जो आपको आपकी मंजिल से जुदा कर सके। जी हाँ हम बात कर रहे हैं झारखंडी की वुशु खिलाड़ी पूर्णिमा लिंडा की, जिन्होंने 2 से 8 मई के बीच रूस में आयोजित मास्को स्टार इंटरनेशनल वुशु प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए कांस्य पदक हासिल की और देश एवं राज्य का नाम रौशन किया। बताते चले कि बीते दिनों मेरठ में हुए सेलेक्शन ट्रायल में पूर्णिमा लिंडा का चयन भारतीय टीम के लिए किया गया था। इससे पहले भी पूर्णिमा ने दर्जनों मेडल राज्य और राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में मेडल जीत चुकी है।
कौन है पूर्णिमा लिंडा?
राजधानी रांची से सटे कांके प्रखंड के नजदीक सीआईपी (पागलखाना) के बगल में एक गांव है सेमर टोली। इस गांव की एक गरीब आदिवासी परिवार में जन्मी बेटी ने बीते दिनों मास्को स्टार इंटरनेशनल वुशु प्रतियोगिता में देश का प्रतिनिधित्व करते हुए कांस्य पदक जीतकर पूरे देश और राज्य का नाम रौशन की। चार भाई बहनों में एकलौती 28 वर्षीय बेटी ने उन सभी परिवारिक हालात को पीछे छोड़ते हुए आज वह मुकाम हासिल किया,जो हर किसी के बस की बात नही है। बचपन से ही खेल के प्रति जूनून और जज्बा ने इस बेटी को 2004 से ही वुशु खेल की ओर आकर्षित किया।
कई बार खेलते खेलते हाथ में इंजरी भी हुई और ऐसा भी सिच्वेशन आया कि अब गेम खेलना छोड़ना पड़ेगा,परन्तु जुनूनी और खेल के प्रति पागलपंथी ने इन सारी परिस्थितियों से बाहर निकलकर फिर से खेल के प्रति जोश पैदा किया और खेल में निरंतरता बनाने में मदद की। आज उसी का परिणाम है कि पूर्णिमा ने देश के कांस्य पदक जीता। अनीता गर्ल्स स्कुल कांके की छात्रा रही पूर्णिमा की इसी प्रतिभा को देखकर स्कुल प्रबंधन ने 10वीं तक की स्कुल फ़ीस माफ़ कर दिया और खेल के लिए उसे हर संभव प्रोत्साहित और मदद किया भी गया।
पूर्णिमा की माँ गांव के ही आंगनबाड़ी में बच्चों को पढ़ाती है जहाँ उसे 2000 रूपये हर महीने मिलती है, वही पिताजी दूसरों के बागानों में जाकर दिहाड़ी मजदूरी कर अपने परिवार का पालन पोषण करते हैं। एक भाई अभी अभी पढाई पूरी करके प्राइवेट कंपनी में जॉब कर रहे है, वही सबसे छोटा भाई बीए कम्प्लीट कर कॉम्पिटिशन का तैयारी कर रहा है। एक भाई का इसी वर्ष सरहुल के दिन ही आकस्मिक निधन हो गया था।
कैसा रहा संघर्ष यात्रा?
वुशु खेल के फिल्ड में पूर्णिमा की संघर्ष यात्रा काफ़ी इमोशनल और कठिनाई भरी रही है। सबसे पहले तो यह खेल ही खतरों का है जिसमे जान तक जाने का खतरा रहता है, ऊपर से घर की एकलौती बेटी होने के कारण भी अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ा। कई बार तो लड़की होने के कारण भी लोगों की ताना सुनने को मिला कि यह खेल लड़कियों का नही हैं हाथ पैर टूट जाएगा तो शादी विवाह में दिक्कत होगी। ऐसे तमाम नकारात्मक बातों को अनसुना करते हुए आज पूर्णिमा ने वह स्थान प्राप्त की है जहाँ तक पंहुचना हर किसी के लिए इतना आसान नही है।
जब हमने पूर्णिमा से उसकी इस संघर्ष यात्रा के बारे में पूछा तो वह काफ़ी इमोशनल हो गई और रुवांसे स्वर में बताया कि जब वह बचपन में प्प्रैक्टिस करती थी तो आर्थिक समस्या के साथ साथ मानसिक और शारीरिक सभी तरह की समस्याओं से जूझना पड़ा। पैसे की कमी के कारण कई बार प्रैक्टिस छोड़ने की भी नौबत आई और निराशा भी हाथ लगा। इसी बीच इसी वर्ष मार्च महीन में सरहुल के दिन छोटे भाई का आकस्मिक निधन ने पूर्णिमा को पूरी तरह से तोड़ दिया था। भाई की मौत का वाक्य पूर्णिमा ने बताया कि…. “जब मै मेरठ में प्रैक्टिस करने के लिए गई थी तब अचानक भाई का देहांत हो गया।
जैसे ही मुझे पता चला मै भाई की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए रांची आई। मुझे कुछ समझ नही आ रहा था कि मै क्या करूँ क्या ना करूँ क्यूंकि मेरा लगाव छोटे से ज्यादा था। जब भी रात को स्टेशन छोड़ना हो या प्रैक्टिस स्थल से रात-बिरात घर लाना ले जाना हो सारा काम मेरा छोटा भाई ही करता था। भाई की मौत ने मुझे काफ़ी तोड़ दिया था। चूँकि मेरे पास पैसे भी नही रहता था कि मै जीते जी कभी भाई को कोई गिफ्ट खरीद कर देता। जब अंतिम यात्रा में मुझे भाई को देने के लिए कुछ नही सुझा तो मैंने अपना सारा मेडल भाई के कब्र मेंडाल दिया। यह पल मेरे लिए काफ़ी असहनीय और पीड़ा दायक रहा, जब भी भाई की याद आती है तो आँखों से अपने आप आंसू बहने लगता है।“
इतनी संघर्ष के बाद भी कोई लड़की इतनी उप्लाव्धियाँ प्राप्त करे, वाकई यह आने वाली पीढ़ी और खेल या अन्य कोई भी फिल्ड में अपने करियर के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के लिए प्रेरणादायक है। जिस किसी को भी अपने जीवन से निराश हतास महसूस होता हो उन्हें एक बार पूर्णिमा की जीवन को पढना और देखना चाहिए और हो सके तो व्यक्तिगत भी मुलाकात करनी चाहिए। जब एक लड़की होकर पूर्णिमा ने जीवन की तमाम संघर्षो को दरकिनार करते हुए आगे बढ़ सकती है तो हम भी क्यूँ नही बढ़ सकते हैं?
आगे क्या है सपना?
आगे पूर्णिमा का सपना है कि वह ओलम्पिक के लिए देश का प्रतिनिधित्व करें और देश के लिए मेडल जीते। फ़िलहाल बहुत जल्द एशियन वुशु प्रतियोगिता जो चाइना में आयोजित होने वाली है जिसमे पूर्णिमा का भी सेलेक्शन होने की उम्मीद है, खेलना है। गरीबी की वजह से पूर्णिमा का फ़िलहाल तो सबसे पहला सपना कोई अच्छी सी सरकारी नौकरी का है ताकि वह अपनी और परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार कर सके। वैसे बताते चले कि पूर्णिमा ने खेल के साथ साथ पढाई भी काफ़ी की है, पूर्णिमा के पास पीजी डिग्री के साथ बीपीएड की भी डिग्री है।