L19 DESK : 12 फरवरी, 1922 के दिन गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का फैसला किया। वो चौरा चौरी में हुए भीषण कांड के बाद बेहद नाराज थे, गांधी हमेशा अहिंसा पर विश्वास करते थे। लेकिन चौरा चौरी में हुई घटना ने उनकी भावनाओं पर गंभीर रूप से आघात किया था। और यही कारण था कि गाँधी ने लगभग एक सप्ताह के बाद ही बारदोली में आयोजित कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में इस आंदोलन को वापस लेने की घोषणा कर दी, जिस कारण ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध चल रही असहयोग आंदोलन समाप्त हो गई।
गुलाम भारत में यह ऐसा आंदोलन था, जिसने अंग्रेजी सत्ता की जड़ों को हिला कर रख दिया था। आर्थिक तौर पर ब्रिटिश हुकूमत को कमजोर किया जाने लगा था। इस आंदोलन की नींव साल 1920 के 1 अगस्त को रखी गयी। देश के संत महात्मा गांधी इस अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। यह गुलाम भारत में अंग्रेजी हुकूमत के शोषण के खिलाफ एक विशाल जन आंदोलन था। इसमें भारतीय समाज के सभी वर्गों ने बराबर का हिस्सा लिया था और सभी के इरादे एक जैसे थे– ब्रिटिश हुकूमत से आजादी।
असहयोग आंदोलन में कांग्रेस पार्टी सबसे ज्यादा बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रही थी, इस कारण साल 1920 के सितंबर महीने में कोलकाता में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में इस आंदोलन को लेकर प्रस्ताव रखा गया। जिस पर अंतिम मुहर दिसंबर महीने में नागपुर में आयोजित कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में लगी। और इस तरह असहयोग आंदोलन की शुरूआत हो गयी। कांग्रेस ने अपने नागपुर के इस वार्षिक अधिवेशन में दो प्रमुख निर्णय लिए थे। इनमें से पहला ब्रिटिश शासन के भीतर स्वशासन की मांग को खत्म करना और खुली स्वराज को अपना लक्ष्य बनाना था। जबकि दूसरा निर्णय रचनात्मक तरीके से असहयोग आंदोलन को मजबूत करना जिससे अंग्रेजी हुकूमत की जड़े हिल जाती।
असहयोग आंदोलन गुलाम भारत का पहला ऐसा संघर्ष था, जो अहिंसा के मार्ग पर आगे बढ़ कर आजाद भारत की नींव रखने वाला था। कांग्रेस ने असहयोग आंदोलन के लिए एक ड्राफ्ट तैयार किया था, जिसके तहत देश में ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन चल रहे स्कूल और कॉलेजों का बहिष्कार किया जाना था, और जनता के बलबूते राष्ट्रीय विद्यालय और महाविद्यालय का निर्माण करना था। विदेशों से आयात की गयी कपड़ों का बहिष्कार कर स्वदेशी और हथकरघा निर्मित कपड़ों का इस्तेमाल किया जाना था। छुआछूत और धार्मिक भेदभाव को दूर करने और गांवो में समरसता को बढ़ावा देने के लिए पंचायतों का निर्माण करना था। ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा आयोजित कार्यक्रमों का बहिष्कार करने के साथ सरकारी उपाधियों और सम्मानों को वापस किया जाना था। साथ ही ब्रिटिश हुकूमत के वैसे कर्मचारियों को इस्तीफा देना था जिन्हें वेतन नहीं दिया जा रहा था, और निकाय परिषदों में मनोनीत पदाधिकारियों को अपने पद से इस्तीफा देना था।
कांग्रेस को यह बात पता थी कि भारत में बस एक चिंगारी की जरूरत है, और असहयोग आंदोलन ने देश में स्वराज के लिए चिंगारी का काम किया। बंगाल और पंजाब में ब्रिटिश सरकार की शिक्षा व्यवस्था को अंदर तक छात्रों और कई भारतीय मूल के शिक्षकों ने हिला कर रख दिया। साल 1921 में जब देश में असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था, उसी वक़्त ब्रिटिश साम्राज्य के प्रिंस ऑफ वेल्स भारत दौरा पर आये, जिसके कारण भारत के लोग और भड़क गए और देश भर में हड़ताल की घोषणा कर दी गयी। विदेशी शराबों की दुकानों पर आंदोलनकारी धरना प्रदर्शन कर रहे थे और विदेशी कपड़ों की होली जलाई जा रही थी।
असहयोग आंदोलन तब और मजबूत हो गया, जब मुसलमान समुदाय खिलाफत आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे, इन दोनों आंदोलन के एक साथ होने से हिंदू मुस्लिम भाईचारे में और भी मजबूती आई। देश की सभी कौम एक साथ मिलकर असहयोग आंदोलन को मजबूत कर रहे थे। लेकिन 5 फरवरी, 1922 के दिन गोरखपुर के चौरी चौरा नामक स्थान पर एक हिंसक भीड़ ने पुलिस चौकी पर हमला कर दिया और उसे आग के हवाले कर दिया। इसके परिणाम स्वरूप लगभग 20 ब्रिटिश सरकार के सुरक्षा अधिकारी मारे गए। चौरा चौरी में हुए इस रक्तपात से गांधी के विचार पर एक कड़ा प्रहार था, जिस कारण गांधी बेहद खफा हो गए, और फौरन कांग्रेस की बैठक बुलाई गयी जहां गांधी ने इस आंदोलन को समाप्त करने की घोषणा कर दी।
–सूरज सुधानंद