L19 DESK : एक वकील ने समाहरणालय में कार्यरत किरानी से कह दिया कि तुम कितना भी होशियार क्यों न बनो, रहोगे किरानी ही। इसलिये संभल कर बात करो। और ये बात उस किरानी को इस कदर चुभी कि उसने उसी वक्त वकील बनने की ठान ली। पटना विवि से वकालत की पढ़ाई की और सिविल कोर्ट में बड़े और नामचिन वकीलों में गिने जाने लगे। ये किरानी कोई और नहीं, बल्कि झारखंड आंदोलन के महानायक बिनोद बिहारी महतो थे।
झारखंड अगर आज एक अलग राज्य बनकर सामने आया है, तो इसका श्रेय कई लोगों के संघर्ष और बलिदान को जाता है। इसी में एक मुख्य नाम बिनोद बिहारी महतो उर्फ बिनोद बाबू का भी है। आज यानी 23 सितंबर को इनकी 100वीं जयंती है। आज अगर ये जिंदा होते, तो इनका 100वां जन्म दिन मनाया जाता। इसी अवसर पर लोकतंत्र 19 के खास पेशकश में आज हम बिनोद बाबू का झारखंडियों और समाज के लिये योगदान की चर्चा करेंगे। बिनोद बिहारी महतो का जन्म बलियापुर के बड़ादाहा गांव में पिता किसान माहिंदी महतो व माता मंदाकिनी के घर 23 सितंबर 1923 को हुआ था। साल 1941 में उन्होंने मैट्रिक पास किया।
इसके बाद परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण वह आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख पाये। साथ ही, दैनिक मजदूर के तौर पर धनबाद कोर्ट में काम शुरु किया। इसके बाद वह समाहरणालय में आपूर्ति विभाग में किरानी की नौकरी करने लगे। इसी बीच यह वाकया हुआ जो हमने वीडियो के शुरुआत में बताया। इस वाकये से आहत होकर उन्होंने नौकरी करते हुए भी आगे की पढ़ाई शुरु कर दी। पहले इंटर, फिर स्नातक की डिग्री लेने के बाद उन्होंने पटना लॉ कॉलेज से वकालत की डिग्री हासिल की। कुछ ही दिनों में वे धनबाद के प्रतिष्ठित अधिवक्ताओं में गिने जाने लगे।
बिनोद बाबू का राजनीतिक जीवन
इसके बाद बिनोद बिहारी महतो की राजनीतिक जीवन की शुरुआत होती है। बिनोद बाबू ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से की। सीपीआई के विभाजन के बाद साल 1967 में वह सीपीएम में चले गये। इसी पार्टी से धनबाद लोकसभा सीट से पहली बार 1971 में चुनाव भी लड़ा। हालांकि उन्हें जीत हासिल नहीं हुई। इसके बाद वह लंबे समय तक बलियापुर प्रखंड के प्रमुख भी रहे। इसी बीच उन्होंने साल 1972 में सीपीएम से इस्तीफा देकर 1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी की स्थापना की। झामुमो की स्थापना में दिशोम गुरु कहे जाने वाले शिबू सोरेन और एके राय भी उनके साथ थे। शिबू सोरेन को इस पार्टी के महासचिव की भूमिका सौंपी गयी। वहीं, बिनोद बाबू अध्यक्ष पद पर रहे। 1980 में टुंडी विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए। इसके बाद सिंदरी विधानसभा क्षेत्र से 1985 में विधायक बने। फिर 1991 के आम चुनाव में गिरिडीह लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने गए। 18 दिसंबर 1991 को दिल्ली के एक अस्पताल में इलाज के दौरान हृदय गति रुक जाने से बिनोद बिहारी महतो का निधन हो गया।
बिनोद बाबू का समाज के लिए योगदान
मगर इस बीच उन्होंने कई महत्तवपूर्ण काम किये जिससे आज उन्हें एक सफल कलमकार, रणनीतिकार, अधिवक्ता और अग्रसोची के तौर पर याद किया जाता है। कई झूमर और करम गीतों में भी बिनोद बाबू का उल्लेख मिलता है। उन्होंने एक समाज सुधारक के रुप में भी अपनी महती भूमिका निभाई। उनके बारे में कहा जाता है कि सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिये वह दोषियों को सज़ा देने से भी पीछे नहीं हटते थे। आज उन्हें एक कुड़मी नेता के रूप में सीमित कर दिया जाता है, मगर वह केवल कुड़मियों के नेता नहीं थे। बल्कि पूरे झारखंड की दशा को बदलने में उनका योगदान रहा है। झारखंड आंदोलन को जो पहले आदिवासियों का आंदोलन कहा जाता था, बिनोद बिहारी महतो के हस्तक्षेप के बाद इसमें गैर आदिवासी जुड़ पाये।
इसके अलावा, बताया जाता है कि बोकारो स्टील प्लांट के लिये जमीन अधिग्रहण के दौरान रैयतों को सरकारी अधिकारी बहुत परेशान करते थे। कौड़ी के भाव में जमीन ले ली जाती थी। रैयतों के पास केस लड़ने के लिये पैसे नहीं होते थे। तब बिनोद बाबू उनका केस अदालत तक लेकर जाते थे, और उचित मुआवजा दिलाते थे। केस का फैसला होने के पहले एक पैसा रैयतों से नहीं लेते थे। जब मुआवजा मिल जाता था तब उसका एक छोटा सा हिस्सा ही फीस के तौर पर लेते थे। इस फीस का ज्यादातर हिस्सा वह स्कूल कॉलेज को दान कर देते थे।
1971 से लेकर 72 तक उन्होंने कुछ स्कूलों और कॉलेजों को 4 -5 लाख तक का सहयोग दिया ताकि ज्यादा से ज्यादा स्कूल खुल सकें औऱ समाज के सभी वर्गों के बच्चे वहां पढ़ लिखकर आगे बढ़ सकें। शिक्षा के साथ साथ सांस्कृतिक विरासत, लोकगीतों नृत्यों को आगे बढ़ाने में भी उनका अहम योगदान रहा। वह इसके लिये आर्थिक सहायता भी प्रदान करते थे। अपने जीवन के अंतिम समय तक वह सामाजिक लड़ाई लड़ते रहे। उन्होंने एकीकृत बिहार के समय बिहार विधानसभा में साल 1990 में कुड़मी जाति को एनेक्जर 1 में शामिल करने का भी मुद्दा उठाया था।