L19 DESK : बेरोजगारी, छंटनी, नौकरी जाने का भय नयी वैश्विक अर्थव्यवस्था के अलंकरण हैं। गुगल, ट्वीटर, एमेजोन, अमेरिका के सिलिकोन वैली सरीखी कंपनियों के एक मेल से लाखों की नौकरी जा रही है। वैश्विक अर्थव्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश और विश्व बैंक के शिकंजे में जकड़ी अर्थव्यवस्था चित्कार कर रही है। निजीकरण, उदारीकरण ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी प्रभाव डाला है। देश के सार्वजनिक लोक उपक्रमों के 49 फीसदी हिस्से निजी हाथों में दिये जा रहे हैं। एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशनों का जीर्णोद्धार बड़ी ग्लोबल कंपनियां कर रही हैं। ऐसे में मजदूर एक सामान्य लेबर बन कर रह गया है। पहले एक मई को मजदूर दिवस के मौके पर श्रमिक संगठनों की तरफ से कई कार्यक्रम आयोजित होते थे। सोमवार यानी एक मई 2023 को भी मजदूर दिवस है। पर किसी को फर्क क्या है। मजदूरों के हित की बात करनेवाली सरकारें इस दिवस पर कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं कर रही हैं।
आर्थिक-सामाजिक ढांचे के अंदर बढ़ रही भीषण असमानता, बेरोजगारी और 90 प्रतिशत जनता की पीड़ा पर रहस्य का आवरण देने की प्रक्रिया जारी है। आर्थिक वृद्धि आधारित विकास अवधारणा के इन कुपरिणामों के परिणामस्वरूप बढ़ते जनाक्रोश को कुंद करने के लिए सर्व समावेषी आर्थिक वृद्धि तथा विकास को मानवीय चेहरा देने की कोशिशें शुरू की गयी है। श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर श्रमिकों को अब तक के प्राप्त अधिकारों के अपहरण और उसमें भी कटौती की जा रही है। श्रम कानूनों को लचीला बनाने के नाम पर श्रमिक वर्ग को पूरी तरह आत्मसर्मपण करने को मजबूर कर दिया है। बताया जाता है कि देश में इंटक, भारतीय मजदूर संघ, सीटू तथा अन्य संगठन की पहले तूती होती थी। आज इन संगठनों का भी वर्गीकरण राजनीतिक अवधारणा के अनुसार हो गया है। मई दिवस, जो ऐतिहासिक रूप से श्रमिकों का न केवल एक शहादत दिवस है, बल्कि एक महान संकल्प का दिवस था, वह हाशिये पर चला गया है।
इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि आज मजदूर आंदोलन कहां पर खड़ा है, मजदूर कहां से चला था और आगे का उसका रास्ता कैसा है? देश के कुल घरेलू उत्पादन में आठ-नौ प्रतिशत वृद्धि के दावे के दरम्यान 25 लाख मजदूरों की छंटनी, संगठित क्षेत्र के रोजगार में 0.38 प्रतिशत की कमी, भविष्य की अनिश्चितता और असंगठित क्षेत्र में प्रतिकूल सेवा शर्तें, असुरक्षित एवं वैधानिक अधिकारों से वंचित 35 करोड़ असंगठित श्रमशक्ति की मौजूदगी पर बड़ा सवाल खड़ा कर रहा है। हजारों सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के कारखाने बंद हो गये हैं। बावजूद इसके देश में कोई सशक्त मजदूर आंदोलन उभरता नहीं दिख रहा है. ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी वृद्धि की दर नौ प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में आठ प्रतिशत है। बातें यहीं तक नहीं हैं, मुद्रास्फीति की दर छह प्रतिशत से ऊपर जा रही है और यह थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित है. खुदरा मूल्य और खास कर खाद्यान्न आदि की कीमत के आधार पर यह वृद्धि 20 से 25 प्रतिशत से ऊपर जा रही है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों, निगमों, विश्व बैंक , अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और खास रूप से अमेरिका द्वारा थोपे गये विकास का वह मॉडल है, जो मुक्त बाजार व्यवस्था के नाम पर लादा जा रहा है. मुद्रास्फीति जहां मजदूरी में अप्रत्यक्ष कटौती करती है, वहीं आय के वितरण की असमानता में, पूंजी के पक्ष में वृद्धि का द्योतक भी है। बेरोजगारी, रोजगार की प्रतिस्पर्धा, श्रम की कीमत की वृद्धि पर रोक लगा रही हैं और श्रम संगठन तथा श्रमिक आंदोलन को कमजोर कर रही हैं। संशोधित श्रम कानूनों की वजह से मजदूर संगठनों के लीडर भी अब अपनी आवाज बुलंद नहीं कर पा रहे हैं । नये परिवेश में ठेका प्रणाली हावी हो गयी है। ठेक पर मजदूरों को लिया जा रहा है और शर्तों के नहीं मांगने की शर्त पर किसी भी क्षण उन्हें नौकरी से निकाले जाने का भी भय सताता रहता है। बैंकों का सबसे बड़ा मजदूरों का संगठन भी नये श्रम कानूनों की वजह से अब कमजोर पड़ चुका है।