L19 DESK : 27 नवंबर, 1957 की सुबह शिबु सोरेन को पता चला कि उनके पिता सोबरन मांझी, जो पेशे से शिक्षक थे उनकी हत्या कर दी गई है. वो ताऱीख जिसे शिबु सोरेन शायद ही कभी भुल पाएंगे. लेकिन उस घटना के बाद शिबू सोरेन को अपनी जिंदगी जीने का मकसद मिला. वो मकसद जिसे उनके पिता सोबरन मांझी पूरा किए बिना, दुनिया छोड़ चुके थे. मकसद था सूदखोरों और महाजनों से ग्रामीण आदिवासियों की मुक्ति, मकसद आदिवासी समाज को शिक्षा के क्षेत्र में आगे लाने की. आज उसी झारखंड अलग राज्य के अगुवा, आदिवासियों के सबसे बड़े नेताओं में से एक, झारखंड राज्य के तीन-तीन बार मुख्यमंत्री, जेएमएम पार्टी के केंद्रीय अध्यक्ष और वर्तमान में राज्यसभा सांसद दिशोम गुरु शिबु सोरेन का जन्मदिन है. उनके जन्म दिवस पर आज हम उनके अब तक के सफर से जुड़े कुछ रोचक कहानियों के बारे में बात करेंगे.
शुरुआत एक वाक्ये से करते हैं. यह उस समय की बात है जब सूदखोरों और महाजनों का वर्चस्व शीर्ष पर हुआ करता था. बावजूद इसके शिबु सोरेन और उनके साथी जबरन महाजनों की धान काटकर ले जाया करते थे. जिस खेत में धान काटना होता था उसके चारों ओर आदिवासी युवा तीर धनुष लेकर खड़े हो जाते थे और महाजनों के खेतों से धान काटकर अपने साथ ले जाया करते थे. यह शिबु सोरेन के धनकटनी आंदोलन का महज एक किस्सा है. आप सोचिए महाजनों के इतने वर्चस्व के बावजूद शिबु सोरेन ये करने में सफल रहे. शिबु सोरेन जो पिता की मौत के बाद पढ़ने में मन नहीं लगा पा रहे थे, उन्होंने पढ़ाई छोड़कर महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ आंदोलन को तेज किया. उनके खिलाफ आदिवासियों को एकजुट किया और बिगुल फूंकी तथा एक आंदोलन खड़ा किया. जिसका नाम धनकटनी आंदोलन रखा गया. ऐसे कई और कारनामों के बाद आदिवासी समाज के लोगों को उस युवा, शिबु सोरेन में अपना नेता दिखाई देने लगा था. आदिवासियों का वो नेता जो उन्हें सूदखोरों से आजादी दिला सकता था. और फिर आदिवासी समाज के लोगों ने ही उन्हें दिशोम गुरु की उपाधि दी. संताली में दिशोम गुरु का मतलब होता है देश का गुरु. शिबु सोरेन का आंदोलन उन दिनों काफी चर्चा में था, लोग इस आंदोलन से जुड़ रहे थे. जिसके बाद बिनोद बिहारी महतो और एके राय भी आंदोलन से जुड़े. आंदोलन कुछ सालों तक चला जिसके बाद उन्हें अपनी राजनीतिक पार्टी की जरूरत महसूस हुई. जिसके बाद बिनोद बिहारी महतो के घर पर एक बैठक रखी गई. बैठक में शिबु सोरेन, बिनोद बिहारी महतो और उनके साथी मौजूद थे.
4 फरवरी, 1972 को हुई इस बैठक में नये संगठन बनाने का फैसला लिया गया. अंत में सर्व सम्मति से इसका नाम झारखंड मुक्त मोर्चा रखने का फैसला लिया गया. जिसमें बिनोद बिहारी महतो को अध्यक्ष और शिबू सोरेन को महासचिव चुना गया था. लेकिन उस समय तक सूदखोरों के खिलाफ आंदोलन करने की वजह से शिबू सोरेन पर कई केस दर्ज हो चुके थे. पुलिस, शिबु सोरेन को गिरफ्तार करने के लिए छापेमारी तेज कर चुकी थी. लेकिन शिबू सोरेन हर बार पुलिस को चकमा देकर फरार हो जाते थे. नये संगठन के बनने के बाद से शिबू सोरेन की लोकप्रियता हर रोज बढ़ती ही जा रही थी. जिसके बाद शिबु सोरेन ने साल 1977 में चुनाव लड़ा. पहली बार लोकसभा चुनाव में शिबू सोरेन ने दुमका सीट से भाग्य आजमाया, लेकिन उनके हाथ असफलता लगी. इस चुनाव में भारतीय लोकदल के बटेश्वर हेंब्रम से शिबू सोरेन हार गए. लेकिन हार के 3 साल यानी 1980 में जब मध्यवधि चुनाव हुआ तो शिबु सोरेन को जीत हासिल हुई और दुमका के सांसद बने.
वहीं, साल 1991 के बिहार विधानसभा चुनाव में झामुमो ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया, उस चुनाव में झामुमो ने शानदार पर्दशन किया. और उसके बाद झामुमो हर रोज और मजबूत होती गई. झारखंड अलग राज्य होने के बाद वह तीन-तीन बार मुख्यमंत्री बने लेकिन वह एक बार भी लंबे समय तक कुर्सी पर काबिज नहीं रह सके. लेकिन वर्तमान में झामुमो झारखंड की सबसे बड़ी पार्टी बन गयी है. हालांकि, शिबु सोरेन ने इस दौरान अपने परिवार में कई बिखराव भी देखा. बड़े बेटे दुर्गा सोरेन को समय से पहले खोया, बहु सीता सोरेन ने पार्टी छोड़ी. हालांकि, शिबु सोरेन आज आदिवासी समुदाय के दिलों में राज करते हैं. ऐसी कई और कहानियां शिबु सोरेन से जुड़ी हुई आपको मिलेंगी लेकिन उनके जन्म दिवस पर हमने आज आपके सामने उसमें से एक यह बताया है.