l19/DESK : लिट्टीपाड़ा, जिस विधानसभा क्षेत्र पर साइमन मरांडी के बदौलत जेएमएम 44 सालों तक राज करती रही है, क्या इस बार यहां के कीचड़ में कमल खिलेगा या फिर एक बार फिर से मरांडी परिवार का ही कब्जा होगा? माना जाता है कि संथाल परगना ही झारखंड की सत्ता का प्रवेश द्वार है। अगर किसी पार्टी ने संथाल परगना को जीत लिया, तो बहुत मुमकिन है कि सत्ता की कमान उसी पार्टी के हाथों में होगी। संथाल में कुल 18 विधानसभा क्षेत्र आते हैं। इनमें से एक महत्वपूर्ण सीट है लिट्टीपाड़ा।
आज हम जानेंगे कि इस बार के विधानसभा चुनाव में जेएमएम के इस अभेद किले का नजारा क्या होगा, क्या है इस क्षेत्र के मुद्दे और समस्यायें, विकास का क्या हाल है, क्या है यहां की राजनीतिक पृष्ठभूमि, और इस बार का चुनावी समीकरण कैसा होगा। हालांकि, फैसला आप झारखंड की जनता के हाथों में है, लेकिन हम बनेंगे जरिया, हम दिखायेंगे यहां के प्रतिनिधि का असली चेहरा, अपने इस नये सेग्मेंट सरकार का रिपोर्ट कार्ड में।
आरक्षित लिट्टीपाड़ा विधानसभा क्षेत्र पाकुड़ जिले में फैला हुआ है। जेएमएम की सफलता में यहां का जातीय समीकरण मुख्य भूमिका निभाता आय़ा है। यहां पर आदिवासी वोटरों की आबादी करीब 40 फीसदी है। आदिवासियों में भी पहाड़िया जनजाति महत्वपूर्ण संख्या में हैं, जिनकी आबादी तकरीबन 10 फीसदी है। इसके अलावा, मुस्लिम आबादी करीब 20 फीसदी, और हिंदू जनसंख्या लगभग 15 फीसदी है। लिहाजा यहां पर आदिवासी और मुस्लिम वोटर्स ही निर्णायक भूमिका में होते हैं। इस सीट पर हमेशा से संथाल आदिवासी ही चुनाव जीतते आ रहे हैं। इस बार भी संथालियों के बीच ही टक्कर की संभावना है।
खबर है कि लिट्टीपाड़ा से एक बार फिर वर्तमान विधायक दिनेश विलियम मरांडी ही जेएमएम की तरफ से चुनाव लड़ सकते हैं, वहीं दूसरी तरफ भाजपा की पिक्चर अभी तक कुछ क्लीयर नहीं है। हालांकि, पार्टी में दो नामों की संभावना काफी अधिक है, इसमें एक नाम है पूर्व जिला परिषद अध्यक्ष बाबूधन मुर्मू का। लेकिन क्योंकि वह पाकुड़ से हैं, इसलिये बताया जाता है कि उनका क्षेत्र में खासा प्रभाव नहीं है। दूसरा नाम है पिछली बार विधानसभा चुनाव में दिनेश विलियम मरांडी के खिलाफ भाजपा से चुनाव लड़ने वाले दानियल किस्कू का। हालांकि सूत्र बताते हैं कि दानियल को लेकर पार्टी के अंदर विरोध की स्थिति उत्पन्न हो रही है।
चर्चा तो यह भी है कि इस बार बीजेपी लिट्टीपाड़ा विधानसभा सीट से दुमका जिले के पार्टी के किसी समर्पित कार्यकर्ता को भी मैदान में उतार सकती है, हालांकि इसकी पुष्टि भाजपा द्वारा अब तक नहीं की गयी है. ऐसे में पार्टी किसे टिकट दे सकती है, इसका कोई अता पता नहीं है।वहीं, दुमका एसपी कॉलेज के प्रोफेसर निर्मल मुर्मू भी यहां एक तीसरा कोण खड़ा कर सकते हैं। उनका खुद का सामाजिक संगठन भी है, स्टूडेंट लीडर रह चुके हैं, और आदिवासियों के बीच उनकी पकड़ भी मजबूत बतायी जाती है। साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले प्रोफेसर निर्मल मुर्मू का क्षेत्र में अच्छा प्रभाव है, ऐसे में फिलहाल संभावना बन रही है कि इस बार का चुनाव वह निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर लड़ सकते हैं।
अब क्षेत्र की समस्याओं और मुद्दों की बात करें तो लिट्टीपाड़ा विधानसभा की गिनती राज्य के सबसे पिछड़े इलाकों में होती है, क्योंकि यह हर मामले में पीछे है। मूलभूत सुविधा भी यहां के लोगों को आज तक मुहैया नहीं हो पायी है। न तो पेयजल की सुविधा है, न बिजली की, न सड़क, न स्वास्थ्य, न शिक्षा, न रोजगार, और न ही खेती किसानी की। आदिवासियों का जल जंगल जमीन भी सुरक्षित नहीं है। यहां पाइपलाइन की कोई व्यवस्था नहीं है।क्षेत्र के कुछ गांव ऐसे हैं, जहां लोगों को वैसा पानी पीने पर मजबूर होना पड़ता है, जहां मवेशी भी पेयजल का लुत्फ उठा रहे हैं। वहीं, कुछ गांव ऐसे भी हैं, जहां पेयजल के लिये 5-7 किमी दूर जाना पड़ता है, वह भी पथरीले रास्तों से गुजरते हुए।
सड़क की हालत इतनी अच्छी है कि बरसात के समय में अगर अपनी घर की ओर लौटना हो, तो बाइक को बहुत दूर में पार्क करना पड़ता है। इस वजह से एंबुलेंस भी यहां पहुंच नहीं पाती, स्वास्थ्य की व्यवस्था भी उतनी ही बेहतरीन है कि गंभीर बीमारियों के समय में मरीज को खाट पर लेकर पैदल यात्रा करनी पड़ती है, वह भी इन्हीं पथरीले सड़कों पर। ऐसे में जान बचना तो नामुमकिन सा हो जाता है। यहां महिलाओं की डिलीवरी आज भी घर पर ही होती है। वहीं, शिक्षा के मामले में यह बहुत ही पीछे है। यहां के कई गांवों ने तो आज तक शिक्षा साक्षरता का मुंह तक नहीं देखा। शिक्षा न होने से बेरोजगारी और पलायन भी चरम पर है। स्थानीय लोगों के लिये रोजगार को लेकर कोई पहल भी नहीं की गयी।
हालांकि, यहां कोयला प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है, और 2-3 बड़ी बड़ी कंपनियों के कोलमाइंस भी हैं, केवल उसी से लोग थोड़ा बहुत अपनी रोजी रोटी चला पा रहे हैं। हालांकि, इसमें भी बाहरियों का कब्जा सर्वाधिक है, इस वजह से क्षेत्र में आदिवासी जनसंख्या पर गहरा प्रभाव पड़ा है। पहले के मुकाबले आदिवासियों की आबादी में काफी कमी आयी है, उनके अनुपात में बाहरियों की जनसंख्या बढ़ी है। बेरोजगारी और पलायन का एक दूसरा मुख्य कारण खेती किसानी के संसाधनों की कमी भी है। अरहर, मक्की, बोदी, बाजरा की खेती के लिये क्षेत्र के लोग मॉनसून पर ही पूरी तरह निर्भर हैं। हालांकि, पहाड़ी इलाका होने के कारण यहां पर बारिश का पानी भी ठहर नहीं पाता, और तो और धान की भी खेती नहीं हो पाती। सरकार की ओऱ से सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं की गयी है। दो-दो चेक डैम होने का भी कोई फायदा नहीं है, क्योंकि यह कारगर नहीं है। इस वजह से खेती किसानी और उससे कमाई करने के लिये क्षेत्र के लोग प. बंगाल की तरफ पलायन करते हैं। भ्रष्टाचार भी यहां चरम पर है, योजनाओं के नाम पर आम लोगों से रकम की वसूली की जाती है.
क्षेत्र में मलेरिया और डायरिया जैसी बीमारी खास कर पहाड़ी क्षेत्रों में एक गंभीर समस्या है। इसकी चपेट में आने से और इलाज के अभाव में आये दिन क्षेत्र के लोगों की मौत हो जा रही है। पिछले साल नवंबर महीने में इस क्षेत्र में कई बच्चों की ब्रेन मलेरिया के कारण मौत हो गयी थी, जिसने राज्यभर का ध्यान अपनी ओर खींचा था। सबसे खराब स्थिति तो यहां के पहाड़िया समुदाय की है। उन्हें डाकिया योजना का भी लाभ नहीं मिल पा रहा है।
लेकिन सवाल ये है कि इतनी बदहाली के बावजूद लिट्टीपाड़ा की जनता 44 सालों से जेएमएम और साइमन मरांडी के परिवार पर ही भरोसा क्यों करती आ रही है ? और इतने वर्षों में भाजपा एक बार भी अपना झंडा क्यों नहीं गाड़ पायी ?
क्षेत्र के लोगों का कहना है कि यहां पर या कह लें पूरे संथाल के इलाके में तीर कमान को लोग पूजते हैं, दिशोम गुरु शिबू सोरेन लोगों के दिलों में खास अहमियत रखते हैं। यहां मुद्दा हावी नहीं होता, बल्कि चुनाव चिह्न मायने रखता है। जबकि भाजपा को क्षेत्र की आदिवासी जनता दिकुओं की पार्टी के तौर पर देखती हैं।यहां के सबसे ज्यादा बार के विधायक साइमन मरांडी शिबू सोरेन के आंदोलन के साथी रहे हैं। माना जाता है कि 70 के दशक में शिबू सोरेन को महाजनी प्रथा के खिलाफ बिगुल फूंकने के लिए साइमन मरांडी ने संथाल परगना में जमीन तैयार करने में मदद की थी।
भाषा में उनकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि वह अपनी सूझ बूझ और चालाकी से आसानी से लोगों के दिलों में जगह भी बना लेते थे, विरोधियों को भी लोहा मनवा लेते थे। क्षेत्र में लोगों की समस्याओं के समय भी जरूर से हाजिर रहा करते थे। लिट्टीपाड़ा की जनता के अलावा कार्यकर्ताओं के बीच भी उनकी पैठ मजबूत थी। इसका फायदा केवल उन्हें ही नहीं, बल्कि उनके परिवार को भी राजनीतिक तौर पर मिला। साइमन मरांडी कुल मिलाकर 4 बार और उनकी पत्नी सुशीला हांसदा दो बार लिट्टीपाड़ा से विधायक रहे। वर्तमान में यह कुर्सी उनके बेटे दिनेश विलियम मरांडी के हाथ में हैं। क्षेत्र की जनता का कहना है कि उन्होंने कभी क्षेत्र का भ्रमण तक नहीं किया। सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों को छोड़कर उन्होंने 5 सालों में केवल रोड का शिलान्यास ही किया है। वह सड़कें भी गांव घर तक नहीं पहुंच सकी हैं। लिट्टीपाड़ा के लोगों से उन्होंने कभी उनके समस्याओं को जानने का प्रयास भी नहीं किया, न उनके रहते कोई योजना का लाभ मिला।
हालांकि पिछली बार का चुनाव तो विधायक दिनेश विलियम मरांडी ने अपने पिता साइमन मरांडी के जीवित रहते जीत लिया था, लेकिन ऐसा पहली बार होगा जब दिनेश को अपने पिता के साये के बगैर ही चुनावी मैदान में उतरना होगा। उनकी छवि भी क्षेत्र में कुछ अच्छी नहीं रही है। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि इस बार जेएमएम और भाजपा में से किसकी जीत होगी ? क्या एक बार फिर से मरांडी परिवार का क्षेत्र पर कब्जा होगा, या फिर लिट्टीपाड़ा में पहली बार भाजपा का कमल खिल पायेगा ?