RITIKA SHARMA
RANCHI : झारखंड की अभी तक की राजनीति में यदि किसी नेता ने आदिवासी समाज की संवैधानिक पहचान, सांस्कृतिक अस्मिता और स्वशासन को केंद्र में रखकर नीतिगत फैसले किए हैं, तो वह नाम है मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन. उनका नेतृत्व केवल सत्ता संचालन तक सीमित नहीं रहा, बल्कि आदिवासी समाज के ऐतिहासिक संघर्षों को नीति और प्रशासन के स्तर पर मान्यता देने की एक गंभीर कोशिश भी रहा है. आदिवासी दृष्टि से हेमंत सोरेन का नेतृत्व आदिवासी समाज सदियों से जल-जंगल-जमीन की रक्षा करता आया है.
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आजादी के बाद भी विकास के नाम पर सबसे अधिक विस्थापन इसी समाज को झेलना पड़ा. ऐसे में हेमंत सोरेन की सरकार द्वारा PESA Act की नियमावली को लागू करना केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं, बल्कि आदिवासी स्वशासन की ओर ऐतिहासिक कदम है. PESA के जरिए ग्रामसभा को जो अधिकार मिले हैं – खनन, भूमि अधिग्रहण, लघु वन उपज, जल स्रोतों और स्थानीय विकास योजनाओं पर निर्णय – वे आदिवासी समाज के उस सपने को साकार करते हैं, जिसके लिए बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हू जैसे महान नेताओं ने संघर्ष किया था. दूरदर्शी सोच का प्रमाण हेमंत सोरेन की राजनीति तात्कालिक लाभ की नहीं, बल्कि दीर्घकालिक सामाजिक संतुलन की राजनीति है.
सरना धर्म कोड की मांग को राष्ट्रीय पटल पर मजबूती से उठाना, आदिवासी भाषा-संस्कृति को संरक्षण देना, और संवैधानिक प्रावधानों के तहत अधिकारों को लागू करना – ये सब उनकी दूरदृष्टि को दर्शाते हैं. उनकी सरकार यह स्पष्ट संदेश देती है कि झारखंड की पहचान केवल खनिजों से नहीं, बल्कि आदिवासी संस्कृति और लोकतांत्रिक भागीदारी से बनेगी. विकास बनाम विस्थापन की बहस हेमंत सोरेन ने विकास की उस परिभाषा को चुनौती दी है, जिसमें आदिवासी समाज केवल “त्याग करने वाला वर्ग” माना जाता था. उन्होंने स्पष्ट किया कि विकास होगा, लेकिन ग्रामसभा की सहमति और स्थानीय हितों की रक्षा के साथ. यह सोच आदिवासी समाज में विश्वास पैदा करती है कि सरकार केवल राजधानी रांची से नहीं, बल्कि गांव के अखड़ा और ग्रामसभा से भी चलेगी. लेकिन चुनौतियां अब पहले से ज्यादा हालांकि नीतिगत फैसले मजबूत हैं, लेकिन जमीनी क्रियान्वयन सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने खड़ा है.
प्रशासनिक तंत्र की मानसिकता आज भी कई जिलों में अधिकारी ग्रामसभा को औपचारिक संस्था मानते हैं. PESA जैसे कानून तभी सफल होंगे, जब प्रशासन की सोच बदलेगी. कॉर्पोरेट और खनन दबाव झारखंड खनिज संपदा से भरपूर है. बड़े उद्योग और कॉर्पोरेट घराने ग्रामसभा के अधिकारों को बाधा मानते हैं. सरकार को इन दबावों से निपटना होगा. राजनीतिक विरोध और दुष्प्रचार हेमंत सोरेन की आदिवासी केंद्रित नीतियों को “विकास विरोधी” बताने की कोशिश होती रही है. यह दुष्प्रचार आदिवासी अधिकारों को कमजोर करने का एक तरीका भी है. आदिवासी समाज की अपेक्षाएं जब उम्मीदें बढ़ती हैं, तो असंतोष भी जल्दी जन्म लेता है.
रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और छात्रवृत्ति जैसे मुद्दों पर आदिवासी युवाओं की नाराजगी सरकार के लिए चेतावनी है. आदिवासी राजनीति का नया दौर हेमंत सोरेन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने आदिवासी राजनीति को भावनात्मक नारों से निकालकर संवैधानिक अधिकारों की राजनीति में बदला है. यह बदलाव स्थायी है, लेकिन इसके लिए निरंतर संवाद, पारदर्शिता और कठोर प्रशासनिक निर्णय जरूरी होंगे.
आगे का रास्ता अगर सरकार – PESA को जमीन पर ईमानदारी से लागू करे ग्रामसभाओं को सिर्फ कागजी नहीं, वास्तविक शक्ति देशिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार में ठोस सुधार लाए तो हेमंत सोरेन न केवल एक सफल मुख्यमंत्री, बल्कि आदिवासी इतिहास के निर्णायक नेता के रूप में दर्ज होंगे. आदिवासी समाज के नजरिए से देखें तो हेमंत सोरेन ने उम्मीद की वह लौ जलाई है, जो दशकों से बुझी हुई थी. लेकिन यह भी सच है कि अब चुनौतियां ज्यादा कठिन और विरोध ज्यादा तीखा है. इतिहास गवाह है – जो नेता आदिवासी अधिकारों के साथ खड़े होते हैं, उनके रास्ते आसान नहीं होते. फैसला आने वाला वक्त करेगा कि यह दूरदर्शी सोच केवल नीति तक सीमित रहती है या झारखंड के गांव-गांव में आदिवासी स्वराज का रूप लेती है.
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
