L19/DESK : हर साल हम 8 मार्च को अन्तरास्ट्रीय महिला दिवस मनाते है | यह एक प्रतीक है, कि महिलाओ को भी उतना ही हक है आगे बढ़ने का, काम करने का जितना हक पुरुषों को है | हमारे देश में कई महिलाऐं हुई, जिन्होंने ऐसे ऐसे काम किये है, जिससे देश का नाम ऊँचा हो, जैसे इंदिरा गाँधी, जो देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री है, द्रौपदी मुर्मू, जो देश की प्रथम आदिवासी महिला राष्ट्रपति है | इसी तरह हम बात करने वाले है झारखण्ड राज्य की एक भारतीय आदिवासी पत्रकार और कार्यकर्ता दयामनी बारला के बारे में जिन्हें (आयरन लेडी ऑफ़ झारखण्ड) के नाम से भी जाता है |
दयामनी बारला का जन्म गुमला जिले के कामडारा प्रखंड के बरहरा गाँव में हुआ था, सर्टिफिकेट में दर्ज तिथि के अनुसार, उनका जन्म 11 दिसम्बर 1962 में हुआ | दयामनी बारला के पिता जुला बारला गाँव में खेती करते थे, और अपने परिवार का भरण पोसन करते थे | लेकिन छेत्र के अन्य आदिवासियों की तरह उनकी ज़मीन को साहुकार ने उनके अंगूठे का निशान एक कोरे कागज पर ले लिया और उनकी सारी जमीन अपने नाम कर ली, जब मामला कोर्ट में गया तो सबूत और गवाहों के अभाव में उनकी जमीन चली गई | केस की वजह से घर के सारे सामान बिक गए, गाय, भैस, बकरी जिनसे जीवन चलती थी सारे बिक गए | आर्थिक तंगी से परेशान होकर उनके पिता और एक भाई दूसरी जगह काम करने लगे, वही दूसरी तरफ उनकी माँ और दूसरा भाई रांची में आकर काम करने लगे | माँ घरों में काम करती और भाई कुली का काम करते थे | आठवी क्लास पास करने के बाद दयामनी बारला आगे की पढाई के लिए अपनी माँ और भाई के पास रांची चली आई | अपनी पढाई के दौरान घरों में बर्तन धोने का काम किया करती थी | काफी सघर्ष के बाद इन्होने एमकॉम की पढाई की, इसके बाद पत्रकारिता की शुरुवात की |
पढाई पूरी होने के बाद दयामनी बारला एक संस्थान में नौकरी करने लगी | लेकिन परिवार के साथ हुए अत्याचार इनके भीतर कही ना कही ऊबल रहा था और तब इन्होने नौकरी छोड़ 1996 में जनक पत्रिका में काम करना शुरु किया | 1997 में प्रभात खबर में स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर लिखना शुरु किया | बारला एक चाय की दुकान की मालिक हैं और उसे चलाती हैं जो उनके पत्रकारिता कार्य और करियर को प्रभावी ढंग से समर्थन देती है। उन्होंने इस व्यवसाय को सोच-समझकर चुना क्योंकि चाय की दुकानें ऐसी जगह है जहा लोग इकट्ठा होते हैं, जहां सामाजिक मुद्दों पर चर्चा की जाती है। दयामनी बारला ने झारखण्ड के कई मुद्दों पर लिखा |
दयामनी बारला ने सबसे पहले 1995 में कोयल कारो आंदोलन में भाग लिया, फिर धीरे – धीरे इन्होने झारखण्ड के कई अहम मुद्दों पर अपनी लड़ाई जारी रखी | दयामनी बारला ने आर्सेलर और मित्तल की नगरी में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ़ मोर्चा खोला | जबरा डैम बनने में भी कई गाँव की जमीने जा रही थी, तब दयामनी बारला ने इसे भी पुरे जोर – शोर से आंदोलन का रूप दिया जिसके चलते, दयामनी बारला को 3 महीने जेल में भी रहना पड़ा | जेल से निकलने के बाद भी उन्होंने अपना आंदोलन जोर – शोर से जारी रखा (सी.एन.टी एक्ट, पेसा कानून , भूमि अधिग्रहण के खिलाफ़ अपनी लड़ाई जारी रखी दयामनी बारला ना केवल आदिवासियों के लिए लड़ने वाली आंदोलनकारी है बल्कि एक लेखिका भी है, उन्होंने कई सारी किताबे भी लिखी है जिनमे से ( विस्थापन का दर्द , इंच जमीन नहीं देंगे ,दो दुनिया, किसानो की जमीन की लूट किसके लिए पार्ट-1 ,पार्ट-2 आदि है ) | दयामनी बारला को उनके कामो और उपलव्धियों के लिए कई पुरुस्कार मिले जिनमे (बारला ने 2000 में ग्रामीण पत्रकारिता के लिए काउंटर मीडिया अवार्ड और 2004 में नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया फ़ेलोशिप 2013 में , वह एक अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन, कल्चरल सर्वाइवल द्वारा स्थापित एलेन एल. लुत्ज़ स्वदेशी अधिकार पुरस्कार की प्राप्तकर्ता थीं। 2023 में, मैसाचुसेट्स लोवेल विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें ग्रीले पीस स्कॉलर नामित किया गया था |