RANCHI : आदिवासी नेत्री ज्योत्सना केरकेट्टा के एक हालिया बयान को लेकर सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं. एक डिजिटल मीडिया कॉन्क्लेव कार्यक्रम में दिए गए उनके वक्तव्य के बाद, जहां एक ओर उन्हें ट्रोल किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर उनके खिलाफ साइबर थाने में लिखित शिकायत भी दर्ज कराई गई है.

ज्योत्सना के बयान की भाषा को लेकर कई लोगों ने आपत्ति जताई है. आलोचकों का कहना है कि सार्वजनिक मंच से इस तरह के शब्दों का प्रयोग समाज के लिहाज से उचित नहीं है. वहीं, उनके समर्थकों और सामाजिक विश्लेषकों का मानना है कि बयान में प्रयुक्त शब्दों से असहमति हो सकती है, लेकिन उसके पीछे उठाया गया सवाल – आरक्षण और सामाजिक भेदभाव – आज भी उतना ही प्रासंगिक और जरूरी है.
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इतिहास पर नजर डालें तो आदिवासी और बहुजन समाज में एकलव्य की कथा केवल एक पौराणिक कहानी नहीं, बल्कि शिक्षा और अवसरों से वंचित किए जाने के ऐतिहासिक अनुभव का प्रतीक मानी जाती रही है. इसी संदर्भ में, गलत भाषा का प्रयोग करते हुए ज्योत्सना ने अपनी बात रखी थी, जिसे लेकर एक वर्ग में आक्रोश है, जबकि दूसरा वर्ग इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरुपयोग के रूप में देख रहा है.

इस पूरे मामले का एक अहम पहलू यह भी है कि सोशल मीडिया पर बयान के बाद जिस तरह की व्यक्तिगत टिप्पणियां और ट्रोलिंग हुई, उसने महिला नेताओं की सार्वजनिक भागीदारी पर फिर से सवाल खड़े कर दिए हैं. राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय महिलाओं को अक्सर वैचारिक असहमति से आगे बढ़कर व्यक्तिगत हमलों का सामना करना पड़ता है, और ज्योत्सना के खिलाफ सोशल मीडिया पर की गई अभद्र टिप्पणियां इसका उदाहरण मानी जा रही हैं.
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फिलहाल, शिकायत के आधार पर साइबर थाना मामले की प्रारंभिक जाँच की प्रक्रिया में जुटा हुआ है. वहीं, ज्योत्सना करकेटा की ओर से इस मुद्दे पर कुछ ही देर बाद माफीनामा भी सामने आया. हालांकि, उनके करीबी लोगों और स्वयं ज्योत्सना का कहना है कि उनके बयान का उद्देश्य किसी समुदाय या आस्था को ठेस पहुँचाना नहीं था, बल्कि आरक्षण जैसे संवेदनशील विषय पर सार्थक चर्चा को आगे बढ़ाना था.
विश्लेषकों का मानना है कि यह विवाद एक बार फिर यह सवाल सामने लाता है कि क्या हम केवल शब्दों पर केंद्रित रह जाते हैं, या उन सामाजिक परिस्थितियों पर भी गंभीरता से बात करने को तैयार हैं, जिनसे ऐसे शब्द जन्म लेते हैं. आरक्षण, प्रतिनिधित्व और शिक्षा में समान अवसर जैसे मुद्दे आज भी आदिवासी समाज के लिए गंभीर सवाल बने हुए हैं.
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संविधान में दिए गए अधिकारों को लेकर अक्सर “लेटर” यानी लिखित प्रावधानों पर तो जोर दिया जाता है, लेकिन “स्पिरिट” यानी उनके पीछे की भावना कहीं न कहीं पीछे छूट जाती है. जो लिखा है, उसे लागू करने की बात तो होती है, पर यह कम ही पूछा जाता है कि उसे क्यों लिखा गया और उसकी मूल भावना क्या है?
ज्योत्सना करकेट्टा का बयान सहमति या असहमति के दायरे में रखा जा सकता है, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आदिवासी अस्मिता, इतिहास और अधिकारों को लेकर संवाद अब भी अधूरा है. और शायद इसी अधूरेपन से ऐसे विवाद बार-बार जन्म लेते हैं.
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)
