तीर्थ नाथ आकाश / Loktantra19 : दिशोम गुरु शिबू सोरेन – एक ऐसा नाम, जो सिर्फ झारखंड ही नहीं, बल्कि पूरे देश के हाशिये पर खड़े लोगों का प्रतीक थे। लेकिन सवाल यह है…क्या उन्हें जानबूझकर सिर्फ ‘आदिवासी नेता’ की सीमा में कैद रखा गया? उनके निधन के बाद भी यह भेदभाव साफ दिखाई दिया। किसी राष्ट्रीय चैनल ने उनके नाम पर प्राइम टाइम नहीं किया, कोई विस्तृत डाक्यूमेंट्री नहीं चली, बस औपचारिक ‘Scheduled Story’… जैसे एक खानापूर्ति।
ये सिर्फ एक सवाल नहीं… ये उस अन्याय की कहानी है जो इस देश ने बार-बार आदिवासी नेताओं के साथ किया है। आज मैं बात कर रहा हूँ दिशोम गुरु शिबू सोरेन की – एक ऐसे जननायक की, जिनकी पहचान, जिनके संघर्ष और जिनके कद को हमेशा जानबूझकर सीमित करने की कोशिश की गई। और यह भेदभाव उनके जीते-जी ही नहीं… उनकी मौत के बाद भी जारी रहा।”
मृत्यु के बाद का मीडिया व्यवहार
“गुरुजी का निधन हुआ, लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में क्या हुआ? न कोई लंबा प्राइम टाइम, न कोई विशेष डॉक्यूमेंट्री, न कोई गहराई से विश्लेषण। बस एक ‘Scheduled Story’ – औपचारिक, रटी-रटाई, खानापूर्ति। उनके नाम पर किसी बड़े एंकर ने 9 बजे रात को देश से नहीं कहा कि — यह आदमी सिर्फ झारखंड का नहीं, बल्कि भारत के लोकतंत्र का सच्चा प्रहरी था। यह चुप्पी अपने आप में एक सबूत है कि सिस्टम और मीडिया, दोनों ने मिलकर उनके कद को सीमित रखा।”
जीवन और संघर्ष – पर दायरे में कैद
“शिबू सोरेन ने सिर्फ आदिवासियों के लिए लड़ाई नहीं लड़ी। उन्होंने किसानों के हक, मजदूरों की मजदूरी, विस्थापितों के पुनर्वास, और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए संसद से लेकर सड़कों तक संघर्ष किया। वे झारखंड आंदोलन के अगुवा रहे, जिन्होंने ‘वनवासी’ शब्द को ठुकरा कर ‘आदिवासी’ पहचान को गर्व का प्रतीक बनाया। लेकिन सत्ता ने, और यहां तक कि मीडिया ने, उन्हें हमेशा ‘Tribal Leader’ का टैग लगाकर सीमित रखा – जैसे वे पूरे भारत की राजनीति पर बात करने के हकदार ही न हों।”
यह पैटर्न नया नहीं
ये पहली बार नहीं हुआ। हमारे इतिहास में देखें तो बिरसा मुण्डा, सिद्दो-कान्हो, रनिया-झुनिया, मरांग गोमके जयपाल सिंह मुण्डा, बाबा कार्तिक उरांव जैसे नेताओं को भी कभी राष्ट्रीय राजनीति में वह दर्जा नहीं दिया गया जो उनके कद के लायक था। उन्हें हमेशा जातीय पहचान के घेरे में रखा गया। क्योंकि सत्ता को डर था कि अगर इन आवाज़ों को राष्ट्रीय मंच मिल गया, तो वे सत्ता के ढांचे की नींव हिला देंगे। शिबू सोरेन के साथ भी यही रणनीति अपनाई गई – राजनीतिक विवाद, कानूनी केस, और मीडिया में एक सीमित छवि।
गुरुजी की विरासत और गलत नैरेटिव
गुरुजी की असली पहचान क्या थी? एक राष्ट्रीय जननायक, जो झारखंड से उठकर पूरे भारत के हाशिये के समाज की आवाज बने। लेकिन उनकी विरासत को गलत नैरेटिव में बांध दिया गया। उनके संघर्ष को सिर्फ ‘Tribal Rights’ तक सीमित दिखाया गया, जबकि असल में वे किसानों से लेकर खनिकों तक, दलितों से लेकर अल्पसंख्यकों तक, हर वर्ग के लिए लड़े। अगर मीडिया ने ईमानदारी से दिखाया होता, तो देश उन्हें सिर्फ ‘आदिवासी नेता’ नहीं, बल्कि जनता का नेता मानता। आज भी मीडिया उन्हें ‘आदिवासी नेता’ कहकर खबर चला रही है। कोई नहीं कह रहा कि वे भारत के संसदीय इतिहास के सबसे मजबूत जनप्रतिनिधियों में से एक थे। कोई नहीं बता रहा कि उन्होंने संसद में किस तरह जल-जंगल-जमीन के मुद्दे को राष्ट्रीय एजेंडा बनाया।
हेमंत सोरेन से अब है उम्मीद
गुरुजी को याद करना सिर्फ फूल चढ़ाना नहीं है… यह उस सोच के खिलाफ खड़ा होना है,
जो आदिवासी नेताओं को बराबरी का मंच देने से डरती है। आज जरूरत है – उन्हें भारतीय लोकतंत्र का जननायक कहने की। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पहल करनी चाहिए – गुरुजी और झारखंड के सभी अगुआओं के संघर्ष को पाठ्यक्रम में शामिल कराएं। ताकि उनका संघर्ष सिर्फ झारखंड में नहीं, पूरे भारत में पढ़ाया जाए।”
यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। जोहार।